माया जड है। सत-रज-तम रूप में तीनों का प्रभाव भी चेतना को ढंकना ही है। यह आवरण ही भेद का कारण है। यही माया है, जो यथार्थ को ढंक कर रखने वाली है। इसकी उपस्थिति ही भेद-दृष्टि है। भेद की सारी परिभाषाएं इस आवरण पर लागू हो जाती हैं। भेद यानि तोडऩा, विभक्त या विमुक्त करना, छिद्रण/ भंग करना, भिन्नता पैदा करना, बुद्धि भेद कारक, विश्वासघात, प्रकार/किस्म, द्वैतवाद, पराजय, शत्रु में फूट डालना आदि। इन सबका एक ही कारण है-यथार्थपरक, सम्यक् दर्शन का अभाव। स्वयं से दूर, बाहर जीने वाला, संकल्प-विकल्प में अटकने वाला, स्मृति-कल्पना से घिरा रहने वाला, विषयों को उनके साथ जुडक़र देखने वाला, आसक्ति, ममकार, अहंकार युक्त व्यक्तित्व भेद-दृष्टि का पोषक होता है। जब तक माया का आवरण है, इससे व्यक्ति बाहर कैसे निकल सकता है?
भेदाभेद दृष्टि के लिए एकमात्र आवश्यकता या अनिवार्यता तो यह है कि व्यक्ति स्वयं विषय से अलग रहकर देखने का अभ्यास करे। इन्द्रियां भी विषय तक जाकर लौट आएं। पूरी जानकारी कर ले, किन्तु विषय का अंग नहीं बने। विषय में आसक्त न हो। आसक्त होते ही यथार्थ से अलग हो जाता है। आसक्ति स्वयं आवरण बन जाती है। यह तब होता है जब सम्यक् ज्ञान के अभाव में व्यक्ति भेद-दृष्टि से निर्णय कर लेता है। यह अच्छा है, यह बुरा है। यह छोटा है, यह बड़ा है। चाहे व्यक्ति हो, कार्य हो, परिस्थिति या स्थान हो। सबके प्रति यही भाव भेद पैदा कर देता है। जबकि भेद होता ही नहीं है। न कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा होता है, न कोई कार्य अच्छा या बुरा होता है तथा स्थिति भी जो होती है, वो होती है।
जब प्रिय व्यक्ति आपके पास आता है, आप सुखी महसूस करते हो। उसी को देखकर आपको लगने लगे कि यह कहां से आ गया, मेरा काम रुक जाएगा, तो वही व्यक्ति दु:ख का कारण बन जाएगा। सच तो यह है कि सुख-दु:ख का कारण बाहर से नहीं आता। हमारा नजरिया ही इसका एक मात्र कारण है। आप घर की छत पर खड़े होकर नीचे शहर को, आने-जाने वालों को, गतिविधियों को देखें। आप किसी से परिचित नहीं हैं। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। कोई अच्छा-बुरा नहीं लग रहा, छोटा-बड़ा नहीं लग रहा। क्यों?
भेद को समझने के लिए उस बिन्दु तक जाना पड़ेगा, जहां माया से अलग होकर माया को देखा-समझा जा सके। हमें स्वयं का धरातल बदलना होगा। स्थूल शरीर को छोड़, कारण शरीर की गतिविधियों का आकलन करना पड़ेगा। यह प्राण रूप होता है। सृष्टि का कारक है। कार्य ही सृष्टि है। सृष्टि को यथार्थ भाव में देखने के लिए सृष्टि के बाहर से देखना होगा। एक धरातल पर सभी एक जैसे दिखाई पड़ते हैं। सबसे पहले शवासन/कायोत्सर्ग का अभ्यास करके स्वयं को शरीर से अलग महसूस करना अनिवार्य है। विचारों की शृंखला से ध्यान हटाकर भावनाओं के धरातल पर चिन्तन करना है।