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हिन्दू धर्म की सर्वाधिक सम्मानित पंचसतियों में से एक हैं देवी अहिल्या, जिनका उद्धार स्वयं श्रीराम ने किया

– देवी अहिल्या की रचना स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने की थी और वो उन्हीं की पुत्री मानी गयी।

Nov 25, 2022 / 04:08 pm

दीपेश तिवारी

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हिन्दू धर्म की सर्वाधिक सम्मानित महिलाओं में से एक देवी अहिल्या भी हैं जिन्हें पंचसतियों में स्थान दिया गया है। वहीं अन्य चार- मंदोदरी, तारा, कुंती और द्रौपदी इसमें शामिल हैं। अहिल्या महर्षि गौतम की पत्नी थीं और देवराज इंद्र के छल के कारण उन्होंने सदियों तक पाषाण बने रहने का दुःख भोगा। बहुत काल के बाद जब श्रीराम महर्षि विश्वामित्र के साथ गौतम ऋषि के आश्रम मे पधारे तब उन्होंने पाषाण रूपी अहिल्या का उद्धार किया।

अहिल्या का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्यूंकि उनकी रचना स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने की थी और वो उन्हीं की पुत्री मानी गयी। यही कारण है कि उन्हें “अयोनिजा” भी कहा जाता है। कथा के अनुसार एक बार परमपिता ब्रह्मा के मन में एक ऐसी स्त्री के रचना का विचार आया, जिसमें किसी प्रकार का कोई दोष ना हो। तब उन्होंने अहिल्या की रचना की जो त्रिलोक में सर्वाधिक सुन्दर स्त्री थी। वो इतनी सुन्दर थी कि स्वयं स्वर्ग की अप्सराओं को भी उससे ईर्ष्या होने लगी। परमपिता ब्रह्मा ने उसका नाम अहिल्या (अ + हल्या), अर्थात जिसमें कोई दोष ना हो, रखा।

एक अन्य मान्यता के अनुसार ब्रह्माजी ने उसे चिर यौवन का वरदान दिया और कहा कि वो सदा 16 वर्ष के समान ही रहेगी और उसका कौमार्य कभी भंग नहीं होगा। इसी कारण उसका ये नाम पड़ा क्यूंकि अहिल्या का एक अर्थ ये भी होता है कि वो भूमि जिसे जोता ना गया हो, स्त्री के सन्दर्भ में इसका अर्थ है वो स्त्री जिसका कौमार्य नष्ट ना हुआ हो।

अब ब्रह्माजी को उसके विवाह की चिंता हुई। देवताओं, दैत्यों, मानव, नाग, गन्धर्व ऐसा कोई नहीं था जो अहिल्या से विवाह नहीं करना चाहता था। उन सबसे अधिक अहिल्या को प्राप्त करने की उत्कंठा देवराज इंद्र में थी। उसके विवाह के लिए ब्रह्मदेव ने एक प्रतियोगिता रखी जिसके अनुसार जो कोई भी संसार की परिक्रमा कर सबसे पहले आएगा उसे ही अहिल्या प्राप्त होगी।

सभी लोगों पृथ्वी की परिक्रमा को निकल पड़े, किन्तु महर्षि गौतम ने बुद्धि से काम लिया। उन्होंने कामधेनु गाय की परिक्रमा की और ब्रह्मदेव के पास अहिल्या का हाथ मांगने पहुंचे। उधर सबको परास्त करते हुए देवराज इंद्र भी सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा कर ब्रह्माजी के पास पहुंचे। दोनों अहिल्या का विवाह उनके साथ करने के लिए ब्रह्मदेव से प्रार्थना करने लगे।

तब ब्रह्मदेव ने ये निर्णय लिया कि कामधेनु गाय में समस्त विश्व का वास है और उसकी परिक्रमा कर महर्षि गौतम ने सबसे पहले इस प्रतियोगिता को जीता है इसी कारण अहिल्या का विवाह उनसे ही होगा।

ये सुनकर इंद्र को अपार दुःख हुआ किन्तु ब्रह्माजी की आज्ञा के आगे वे क्या कर सकते थे? अहिल्या का विवाह महर्षि गौतम के साथ हो गया, किन्तु इंद्र अहिल्या को भुला नहीं पाए और उन्होंने निश्चय किया कि छल से या बल से, वो अहिल्या को प्राप्त कर के ही रहेंगे।

बहुत काल बीत गया। गौतम और अहिल्या प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। उन दोनों के कई पुत्र हुए जिनमें से शतानन्द ज्येष्ठ थे। बहुत समय बीत चुका था किन्तु इंद्र अभी भी इसी ताक में थे कि किस प्रकार वे अहिल्या को प्राप्त कर सकें। महर्षि गौतम प्रतिदिन मुर्गे की बांग सुनकर उठते थे और नदी तट पर जा कर स्नान कर वापस लौटते थे।

उनकी ये दिनचर्या देख कर एक दिन इंद्र ने मध्यरात्रि को ही गौतम ऋषि के आश्रम के बाहर मुर्गे की बांग दी। महर्षि गौतम को लगा कि सूर्योदय हो गया है और वे उठकर स्नान करने चले गए।

इंद्र को मौका मिला और वो महर्षि गौतम का वेश धारण कर कुटिया में चले गए और अहिल्या के साथ समागम किया। अहिल्या को इस बात का जरा भी भान नहीं था कि महर्षि गौतम के वेश में वो इंद्र है। उधर नदी पर पहुंच कर महर्षि गौतम को आकाश के तारों को देख कर ये भान हुआ कि अभी रात्रि ही है। तब वे किसी आशंका के बारे में सोचते हुए तत्काल अपने आश्रम की ओर चल पड़े।

उधर जब इंद्र आश्रम से निकल रहे थे तभी महर्षि गौतम वहां पहुंचे। अहिल्या ने जब दो-दो महर्षि गौतम को देखा तो वे समझ गयी कि उनके साथ छल हुआ है। इंद्र तत्काल वहां से पलायन कर गए किन्तु महर्षि गौतम ने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया कि वो इंद्र ही थे।

तब क्रोध में आकर महर्षि गौतम ने इंद्र को नपुंसक हो जाने का श्राप दे दिया। जब वे इंद्रलोक पहुंचे तो इसके बारे में अन्य देवताओं को बताया। तब सभी देवताओं ने उनका उपचार किया जिसके बाद इंद्र “मेषवृण” कहलाये।

एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि गौतम ने इंद्र को एक अन्य श्राप दिया जिससे बचाव के लिए इंद्र ने श्रीहरि की तपस्या की, तपस्या पूर्ण होने के बाद श्रीहरि ने कहा कि वो गौतम ऋषि का श्राप तो पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकते किन्तु उन्होंने श्राप में बदलाव करते हुए इंद्र में के शरीर पर 1000 नेत्र बना दिए और तभी से इंद्र “सहस्त्राक्ष” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इंद्र को श्राप देने के बाद भी गौतम ऋषि का क्रोध कम नहीं हुआ। अहिल्या ने बार-बार उनसे क्षमा याचना की किन्तु फिर भी गौतम ऋषि ने उन्हें श्राप दिया – “जिस स्त्री को अपने पति के स्पर्श का ज्ञान भी ना हो वो एक पाषाण की भांति है। इसीलिए तुम तत्काल पाषाण की हो जाओगी।” तब अहिल्या ने कहा – “स्वामी! आप त्रिकालदर्शी होते हुए भी इंद्र के छल को समझ नहीं पाए फिर मैं तो एक साधारण स्त्री हूँ। यदि मैं इंद्र के छल को समझ ना पायी तो इसमें मेरा क्या दोष?”

ये सुनकर महर्षि गौतम का क्रोध कुछ कम हुआ और उन्हें लगा कि उन्होंने अकारण ही अहिल्या को श्राप दे दिया है। तब उन्होंने कहा कि “त्रेतायुग के अंतिम चरण में श्रीराम द्वारा तुम्हारा उद्धार होगा और तुम पुनः मुझे प्राप्त करोगी।” ये कहकर महर्षि गौतम अपना आश्रम छोड़ दूर तप करने चले गए और अहिल्या श्राप के प्रभाव से एक पाषाण में परिणत हो गयी।

जब श्रीराम महर्षि विश्वामित्र के साथ ताड़का वध को निकले तो भ्रमण करते हुए वे महर्षि गौतम के उजाड़ आश्रम में पहुंचे। वहां महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम को अहिल्या की कथा सुनाई और तब श्रीराम ने पाषाण रूपी अहिल्या के चरण स्पर्श कर उनका उद्धार किया। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि श्रीराम ने अपने पैरों के स्पर्श से अहिल्या का उद्धार किया। अपने पूर्ववत रूप में आने के बाद अहिल्या ने श्रीराम के कोटिशः धन्यवाद कहा और अंततः अपने शरीर को त्याग कर महर्षि गौतम के लोक चली गयी।

बाद में जब विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी पहुंचे तो सबसे पहले उन्होंने अहिल्या के पुत्र शतानन्द ऋषि को, जो उस समय महाराज जनक के कुलगुरु थे, उनके माता के उद्धार के बारे में सूचित किया जिसे सुनकर उन्हें असीम शांति हुई।

यहां ये भी जान लें कि वर्तमान में बिहार के दरभंगा जिले के एक गांव अहियारी “अहिल्या स्थान” के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से इसी स्थान पर श्रीराम ने अहिल्या का उद्धार किया था। ये माता सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी से लगभग 40 किलोमीटर दूर है।

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