
जगन्नाथ रथ यात्रा के लिए सोने की कुल्हाड़ी से काटी लकड़ी से तैयार होता है रथ
दरअसल, भगवान जगन्नाथ ने प्राचीन काल में अपने भक्त को बीमारी की पीड़ा से बचाने के लिए उसके हिस्से के कर्मफल को भोगा था। इसके लिए उन्हें 15 दिन बीमार रहना पड़ा था, और एकांतवास में रहना पड़ा था। इस समय उनका इलाज किया गया था। इसी परंपरा को लेकर हर साल आषाढ़ माह में भगवान जगन्नाथ के मंदिर के कपाट 15 दिन के लिए बंद कर दिए जाते हैं। इस दौरान भगवान का विग्रह भी मंदिर में नहीं रहता है और उनका इलाज किया जाता है। जब भगवान स्वस्थ हो जाते हैं तो नगर भ्रमण पर निकलते हैं।
इसी परंपरा के अनुसार ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा तिथि के दिन ओडिशा के जगन्नाथ पुरी मंदिर से भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम के साथ गर्भगृह से बाहर लाया जाता है। मान्यता के अनुसार स्नान के बाद भगवान को बुखार आ जाता है। इसके बाद भगवान शयन कक्ष में रहते हैं। इस दौरान उनका उपचार किया जाता है और उन्हें कई तरह की औषधियां खिलाई जाती है।
सिर्फ पुजारी ही भगवान के दर्शन कर पाते हैं और उनकी सेवा सुश्रुसा करते हैं। इस दौरान भोग भी सादे लगाए जाते हैं। इसके बाद भगवान के स्वस्थ होने पर आषाढ़ शुक्ल पक्ष शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि के दिन भगवान की रथ यात्रा निकाली जाती है। यह तिथि 20 जून मंगलवार 2023 को है, इसलिए भगवान जगन्नाथ जब स्वस्थ हो गए हैं तो उनकी रथ यात्रा 20 जून 2023 को निकाली जाएगी और वो नगर भ्रमण पर निकलेंगे।
परंपरा के अनुसार भगवान जगन्नाथ स्वस्थ होने पर भगवान मंदिर से बाहर आते हैं और भगवान बलभद्र, बहन सुभद्रा के साथ इनकी पूजा होती है। फिर भगवान रथ पर सवार होते हैं और नगर भ्रमण करते हैं। इसके बाद वह कुछ दिन के लिए गुजिया मंदिर अपनी मौसी के घर आराम करने के लिए जाते हैं। पांच हजार साल पुरानी बताई जाने वाली भगवान जगन्नाथ की यह रथ यात्रा देखने के लिए देश और विदेश से लोग जगन्नाथ पुरी आते हैं।
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रथ यात्रा के लिए हर साल रथ बनाए जाते हैं। रथों को चमकीले रंगों से रंगा जाता है. सबसे ऊपर लाल रंग होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ के लिए लाल और पीले रंग का, भगवान बलराम के रथ के लिए लाल और हरे रंग का और सुभद्रा के रथ के लिए लाल और काले रंग का उपयोग किया जाता है।
भगवान जगन्नाथ के रथ को चक्रध्वज या नंदीगोश कहा जाता है, जिसका अर्थ है कोलाहलपूर्ण और आनंदमय ध्वनि। इसमें 16 पहिये लगे होते हैं और यह रथ लगभग 45 फीट लंबा होता है, जिसका वजन 65 टन होता है। इसके शिखर पर गरुड़ की एक आकृति भी होती है और इसे चार सफेद लकड़ी के घोड़े खींचते नजर आते हैं।
बलराम के रथ को तलध्वज कहा जाता है, जिसका अर्थ है महत्वपूर्ण शक्तिशाली लय की ध्वनि। इस रथ में 14 पहिये होते हैं, और इसे लकड़ी के चार काले घोड़े खींचते नजर आते हैं। इसके शिखर पर हनुमान जी की प्रतिमा रहती है।
सुभद्राजी के रथ को पद्मध्वज या दर्पदलन नाम से जाना जाता है, इसका अर्थ है अभिमान का नाश करने वाला। इसके शिखर पर एक कमल रहता है और रथ में 12 पहिये लगे होते हैं। इस रथ को चार लाल लकड़ी के घोड़े खींचते हैं। यात्रा के दौरान भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और फिर भगवान जगन्नाथ मंदिर से बाहर लाए जाते हैं।
बताते हैं कि इन रथों के लिए जिन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है, उसे सोने की कुल्हाड़ी से काटा जाता है और रथ तैयार करने में कम से कम दो महीने लगते हैं। इस काम की शुरुआत अक्षय तृतीया के दिन से होती है। इसके लिए सबसे पहले लकड़ी चुनी जाती है और फिर वन विभाग से लकड़ी काटने की मंजूरी ली जाती है। इसके बाद मंदिर के पुजारी जंगल में इन चुने पेड़ों की पूजा करते हैं। फिर सोने की कुल्हाड़ी को भगवान जगन्नाथ से स्पर्श कराकर आशीर्वाद लिया जाता है फिर महाराणा यानी कारपेंटर कम्युनिटी के लोग पेड़ों पर सोने की कुल्हाड़ी से कट लगाते हैं।
Updated on:
06 Jul 2024 06:44 pm
Published on:
19 Jun 2023 03:50 pm
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