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Tulsi Vivah 2021: जानें शालिग्राम-तुलसी विवाह का महत्व और कथा

Tulsi Vivah Katha: विष्णु शिला शालिग्राम के तुलसी से विवाह करने का क्या मिलता है पुण्य?

भोपालNov 09, 2021 / 01:07 pm

दीपेश तिवारी

tulsi-shaligram vivah

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हिंदू कैलेंडर में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। वहीं इस दिन तुलसी पूजन का दिन उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है।

इस दिन मुख्य रूप से कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां तुलसी जी और शालिग्राम का विवाह करती हैं। इसके तहत पूर्ण विधि-विधान से तुलसी के बिरवे से शालिग्राम के फेरे एक सुंदर मण्डप के नीचे डाले जाते हैं।

तुलसी को विष्णु-प्रिया भी कहा जाता हैं तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी को भी कुछ जानकार ठीक तिथि मानते हैं। वहीं नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत और पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को देना शुभ माना जाता है।

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जबकि कुछ लोग एकादशी से पूर्णिता तक तुलसी पूजन करके पांचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति अधिक प्रचलित है।

तुलसी विवाह 2021 शुभ मुहूर्त-
साल 2021 में कार्तिक महीने के शुक्‍ल पक्ष की एकादशी रविवार,14 नवंबर 2021 को 05:48 AM से शुरू होगी और इसका समापन सोमवार, 15 नवंबर 2021 की 06:39 AM होगा।
ऐसे में इस बार तुलसी विवाह (Tulsi-Shaligram Vivaah)इसी दिन किया जाएगा। जिसके बाद से शुभ कार्य शुरू हो जाएंगे। वहीं इस व्रत को रखने वाले व्रती 15 नवंबर को 01:10 PM से 03:19 PM के बीच पारणा कर सकेंगे।

तुलसी-शालिग्राम पूजा का महत्व:
: पुराणों के अनुसार भगवान शालिग्राम जिस घर में होते हैं, वह घर समस्त तीर्थों से भी श्रेष्ठ है। इनके दर्शन व पूजन से समस्त भोगों का सुख प्राप्त होता है।

: ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड अध्याय के अनुसार जहां भगवान शालिग्राम की पूजा होती है वहां भगवान विष्णु के साथ भगवती लक्ष्मी भी निवास करती है।

: स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शिव ने भी भगवान शालिग्राम की स्तुति की है।

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: पुराणों के अनुसार जो कोई शालिग्राम शिला का जल अपने ऊपर छिड़कता है, वह समस्त यज्ञों और संपूर्ण तीर्थों में स्नान के समान फल पा लेता है।

: वहीं लगातार शालिग्राम शिला का जल से अभिषेक करने वाला व्यक्ति संपूर्ण दान के पुण्य और पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है।

: जबकि मृत्युकाल में इनके चरणामृत का जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक चला जाता है।

: शालिग्राम का जिस घर में नित्य पूजन होता है उसमें वास्तु दोष और बाधाएं स्वतः समाप्त हो जाती है।

: पुराणों के अनुसार श्री शालिग्राम जी का तुलसीदल युक्त चरणामृत पीने से भयंकर से भयंकर विष का भी तुरंत नाश हो जाता है।

वहीं जानकारों की मानें तो तुलसी भी ही एक साधारण सा पौधा है, लेकिन इसमें कई आयुर्वेदिक गुण भी मौजूद है। ऐसे में भारतीयों के लिए यह गंगा-यमुना के समान पवित्र है। पूजा की सामग्री में तुलसी दल (पत्ती) जरूरी समझा जाता है।

तुलसी के पौधे को स्नान के बाद प्रतिदिन पानी देना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम माना जाता है। इसका कारण यह है कि तुलसी के आसपास की वायु शुद्ध हो जाती है।

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पंडित एके शुक्ला के अनुसार तुलसी पूजा की शुरुआत और इससे जुड़ी कुछ खास जानकारियों के लिए इसकी एक कथा को जानना आवश्यक है, तो चलिए तुलसी पूजा आरंभ होने के कारण और इससे होने वाले लाभ को कथा से समझते हैं।

तुलसी कथा:
प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर और पराक्रमी तो था ही उसकी पत्नी वृन्दा भी पूर्ण पतिव्रत धर्म का पालन करती थी। पत्नी वृन्दा का पतिव्रता होना ही उसकी वीरता का सबसे खास रहस्य था।

जिसके प्रभाव से वह सर्वजयी बन बैठा था। जालंधर के उत्पातों व उपद्रवों से डरकर ऋषि व देवता भगवान विष्णु के पास गए और उनसे रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर काफी सोच-विचार के पश्चात भगवान विष्णु ने वृन्दा का पतिव्रत धर्म भंग करने का निश्चय किया।

इसके तहत उन्होंने योगमाया की मदद से एक मृत शरीर वृन्दा के आंगन में फिंकवा दिया। माया का पर्दा पड़ा होने से वृन्दा को वह अपने पति का शव दिखाई दिया। अपने पति को मृत देख वह विलाप करने लगी। उसी समय एक साधु उसके पास आया और कहने लगा- ‘बेटी! इतना विलाप मत करो, मैं इस मृत शरीर मे जान डाल दूंगा।’

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साधु ने मृत शरीर में जान डाल दी। दुख में डूबी वृन्दा ने उस (मृत शरीर) का आलिंगन कर लिया, जिसके कारण उसका पतिव्रत धर्म नष्ट हो गया। बाद में वृन्दा को भगवान का यह छल-कपट ज्ञात हुआ। उधर उसका पति जालंधर जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृन्दा का सतीत्व नष्ट होते ही देवताओं के द्वारा मारा गया।

जब वृन्दा को इस बात का पता चला तो क्रोध में उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया- ‘ जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति-वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मुत्युलोक में जन्म लोगे।’ और यह कहकर वृन्दा अपने पति के साथ सती हो गई।

उधर भगवान विष्णु अपने छल पर बड़े लज्जित हुए। देवताओं व ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया और पार्वती जी ने वृन्दा की चिता भस्म में आंवला, मालती व तुलसी के पौधे लगाए। भगवान विष्णु ने तुलसी को ही वृन्दा का रूप समझा। कालान्तर में रामावतार के समय रामजी को सीता का वियोग सहना पड़ा।

वहीं एक अन्य प्रचलित कथा के अनुसार वृन्दा ने भगवान विष्णु को शाप दिया था कि- ‘ तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है, अत: तुम पत्थर बनोगे।’

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इस पर भगवान विष्णु बोले-‘ हे वृन्दा! तुम मुझे अत्यधिक प्रिय हो गई हो। यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।’ इसी कारण शालीग्राम के रूप में विष्णु शिला की पूजा बिना तुलसी दल के अधूरी मानी जाती है।

वहीं एक अन्य सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा को स्पर्श कर दिया। जिसके कारण वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग हो गया और जलंधर युद्ध में मारा गया। भगवान विष्णु से छले जाने और पति के वियोग से दुखी वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया था।

इसी पुण्य की प्राप्ति के लिए आज भी तुलसी विवाह बड़े धूमधाम से किया जाता है। तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला व्यक्ति यथाविधि से भगवान विष्णु को कन्यादान करके तुलसी विवाह सम्पन्न करता है। इसी कारण तुलसी की पूजा करने का बड़ा माहात्म्य है।

तुलसी विवाह की पूजा विधि-
तुलसी विवाह के तहत सबसे लकड़ी की एक साफ चौकी पर आसन बिछाना चाहिए। वहीं तुलसी के गमले को गेरू से रंग देने के पश्चात गमले सहित चौकी के ऊपर तुलसी जी को स्थापित करें।

इसके अलावा एक अन्य चौकी पर भी आसन बिछाकर उस पर शालीग्राम को स्थापित करना चाहिए। फिर इन दोनों चौकियों के ऊपर गन्ने से मंडप सजाएं।

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अब एक जल से भरे कलश को पांच या फिर सात आम के पत्ते लगाकर पूजा स्थल पर स्थापित करें। फिर शालिग्राम व तुलसी के समक्ष घी का दीपक प्रज्वलित करें और रोली या कुमकुम से उनका तिलक करें।

इस दौरान तुलसी पर लाल रंग की चुनरी चढ़ाने के साथ ही चूड़ी,बिंदी आदि चीजों से तुलसी का श्रंगार करें। फिर सावधानीपूर्वक चौकी समेत शालीग्राम को हाथों में लेकर तुलसी की सात परिक्रमा करनी चाहिए।

जिसके बाद पूजन पूर्ण होने पर देवी तुलसी व शालीग्राम की आरती करते हुए उनसे सुख सौभाग्य की कामना करें। वहीं पूजा के समापन के पश्चात सभी में प्रसाद बांट दें।

शालिग्राम शिला : ऐसे समझें
जिस तरह से नर्मदा नदी में निकलने वाले पत्थर नर्मदेश्वर या बाण-लिंग साक्षात् शिव स्वरुप माने जाते हैं और उनकी किसी प्रकार से प्राण प्रतिष्ठा की स्वयंभू होने के कारण आवश्यकता नहीं होती।

ठीक इसी तरह शालिग्राम भी नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाते हैं। ये काले रंग के चिकने, अंडाकार पत्थर होते हैं। इनकी भी स्वयंभू होने के कारण प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती और भक्त इन्हें घर अथवा मन्दिर में सीधे ही पूज सकते हैं।

शालिग्राम कई रूपों में प्राप्त होते हैं इनमें जहां कुछ मात्र अंडाकार होते हैं तो वहीं कुछ में एक छिद्र होता है और इसके अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं। वहीं कुछ पर सफेद रंग की गोल धारियां चक्र के समान होती हैं। दुर्लभ रूप से कभी कभी पीताभ युक्त शालिग्राम भी प्राप्त होते हैं।

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