
A wonderful sample of architecture
सागर. देखरेख के अभाव में जर्जर और अनुपयोगी हो रही लक्ष्मीपुरा की बावड़ी (चौपड़ा) का अब कायाकल्प हो गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए पत्रिका ने अपने अमृतं-जलम् अभियान के तहत मुहिम छेड़ी थी। इसमें स्थानीय जनप्रतिनिधियों और जागरुक नागरिकों ने बढ़-चढ़कर श्रमदान किया था। विधायक शैलेंद्र जैन भी अभियान से जुड़े और पर्यटन विभाग से बावड़ी की सूरत बदलने के लिए राशि स्वीकृत कराई थी। सालभर चले काम के बाद अब बावड़ी का नजारा ही बदल गया।
सामाजिक सरोकार की कड़ी में पत्रिका लगातार अभियान चलाकर ग्रीष्मकाल में उन जलस्रोतों के जीर्णोद्धार के लिए काम कर रहा है, जो कभी उपयोगी और पेयजल के बड़े स्रोत हुआ करते थे। इसी के तहत लक्ष्मीपुरा वार्ड स्थित एेतिहासिक बावड़ी को चुना गया था। अभियान के शुरुआत से ही वार्ड सहित नगर के नागरिकों ने श्रमदान में भाग लेकर पानी में घुली गंदगी को साफ किया था। इसमें वार्ड पार्षद नीरज जैन गोलू, शैलेंद्र कालपी सहित अनेक लोगों ने सहयोग किया था।
अब लगेगा फव्वारा: पर्यटन विभाग से मिली राशि से यहां के घाटों और घुमावदार सीढि़यों को दुरस्त कर इनमें लाल पत्थरों से कारीगरी की गई है। विधायक शैलेंद्र जैन ने बताया कि अब यहां रोशनी और फव्वारा आदि से भी सौंदर्यीकरण कराया जाएगा।
इसे कहत हैं बावड़ी
बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुओं या तालाबों को कहते हैं, जिनके जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुंचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' और गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं। जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है।
Published on:
27 Jul 2018 06:01 pm
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