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बदहाल है मगहर का गांधी आश्रम, भूखमरी के कगार पर कर्मचारी

अस्सी के दशक तक खादी आश्रमों की रौनक देखने लायक थी, पर बाद में सरकारों की अदूरदर्शिता और उदासीनता के चलते आज यह बदहाल है।

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Gandhi Ashram Maghar

मगहर का गांधी आश्रम

नजमुल होदा की रिपोर्ट

संतकबीरनगर. खादी वस्त्र नहीं विचार है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इसी सपने को साकार करने के लिए आजाद भारत में खादी वस्त्रो के निर्माण के लिए गांधी आश्रमों की स्थापना की गई थी, जिसके चलते एक तरफ जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपने सच होते तो दूसरी तरफ सैकड़ों बेरोजगारों को रोजगार भी मिलता था।

इन्ही में से एक है जिले के मगहर में स्थित गांधी आश्रम। गांधी के स्वावलंबन व स्वदेशी के सपने को साकार करने और हुनर मंद हाथों को काम देने के मकसद से साठ के दशक में स्थापित मगहर का यह गांधी आश्रम वर्षों तक लोगों की रोजी रोटी का साधन रहा है। अस्सी के दशक तक खादी आश्रमों की रौनक देखने लायक थी, पर बाद में सरकारों की अदूरदर्शिता और उदासीनता के चलते आज गांधी जी के यही आश्रम अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे है और यहां पर काम कर रहे सैकड़ों कर्मचारियों और बुनकरों की जिंदगी बेनूर और बेजार हो चुकी है।

गांधी आश्रम की बदहाली और बंदी से कर्मचारी भूखमरी के शिकार है। महीनों से वेतन नहीं मिलने से कर्मचारी सहित उनका पूरा परिवार भूखमरी के कगार पर है। समय के साथ सत्ता बदली और बदले निजाम पर नहीं बदली तो सिर्फ खादी गांधी आश्रमों की हालत। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के कार्यकाल में इन खादी गांधी आश्रमों की रौनक लौटी थी और तब मगहर कस्बे में स्थित इस आश्रम का दर्जा देश के गिने चुने गांधी आश्रमों में की जाती थी जिसका विस्तार लखनऊ से लेकर पूरे पूर्वांचल तक था और यहां पर कर्मचारियों और बुनकरों को मिलाकर तकरीबन पंद्रह सौ लोग काम किया करते थे। उस समय खादी ग्रामोद्योग भारत सरकार की तरफ से ऐसे तमाम केन्द्रों के विकास के लिए ग्रांट भी मिलता था, जिसके सहारे कच्चे माल की खरीदारी आदि का कार्य किया जाता था लेकिन बाद की सरकारों ने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया, जिसका नतीजा यह निकला की यह आश्रम दिये की लौ के सामान धीरे धीरे बुझने के कगार पर पहुंच चुका है।

महंगाई ने इस उद्योग को काफी प्रभावित किया और बाजार में कच्चे माल की बढ़ी कीमतें इस उद्योग को बर्वादी के इस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है । जल्द ही अगर सरकारी मदद इन्हें नहीं मिलती है तो यह आश्रन अपने अस्तित्व को खो बैठेगी। मगहर के इस खादी गांधी आश्रम में एक वक्त जहां पंद्रह सौ कर्मचारी काम किया करते थे, वहां अब महज एक सौ तीस कर्मचारी और बुनकर ही बचे हैं, जिनका साल भर से वेतन बकाया है। रिटायर्ड कर्मियों के पीएफ का भुगतान न होने के कारण उनका परिवार भुखमरी के कगार पर है । अब सवाल यह उठता है कि यदि जिम्मेदार सरकारों ने जल्द ही इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की तो वो दिन दूर नहीं जब इस आश्रम के पास अपनी कोई जमीन नहीं होगी और न ही बचा रहेगा गांधी जी का ये सपना।

राष्ट्रपिता यानी बापू की ये बगिया कभी काफी गुलजार हुआ करती थी और यहां पर काम करने वाले कर्मचारियों की बड़ी भीड़ कभी कबीर की धरती मगहर की पहचान हुआ करती थी। इसी खादी आश्रम में बनने वाले उत्पादों की खपत पूरे देश में होती थी। यही आश्रम हजारों लोगों के घरों में दो वक्त का चूल्हा जलाता था पर आज की स्थिति कुछ और ही बयां कर रही है। कल तक जिस आश्रम के अंदर खादी वस्त्रों के अलावा साबुन, अगरबत्ती, छपाई आदि के उद्योग फलफूल रहे थे, आज सरकारी उदासीनता के चलते यहां पर पड़ी तमाम मशीने जंग खा रही है। गांधी आश्रम में काम करने वाले बुनकर आज बदहाली की जिंदगी जीने पर मजबूर है। गांधी जी के बताये रास्तों पर चलने का संकल्प लेने और खादी वस्त्र को धारण कर अपने आप को नेता कहने वाले जनप्रतिनिधियों ने भी इस आश्रम की कोई खोज खबर नहीं ली।

स्थानीय लोग व बुद्धिजीवी गांधी आश्रम को गांधी के स्वावलंबन व स्वदेशी के सपने से और उनके विचारों से जोड़ कर देखते है। उन्हें गांधी आश्रम की बदहाली खल रही है। उनका मानना है कि सरकार को गांधी की विरासत को बचाने की जरूरत है।