19 दिसंबर 2025,

शुक्रवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

मातृभाषा दिवस विशेष: सिमट रहा बघेली भाषा का दायरा, सूख रहा शब्दों का भंडार, यहां पढ़िए रोचक पहलू

बघेलखंड के माथे की बिंदी 'बघेली': वर्तमान में अपनी मातृभाषा बघेली देशी साहित्य एवं कविता-कहानियों में सिमट कर रह गई है।

3 min read
Google source verification
Mother Language Day Special: bagheli language in mp rimahi language

Mother Language Day Special: bagheli language in mp rimahi language

सतना। आज मातृभाषा दिवस है। विश्व की सांस्कृतिक विविधता बचाए रखने के उद्देश्य से राष्ट्रसंघ ने 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस घोषित किया है। विश्व के कई देशों ने अपनी मातृभाषा को अपनाकर विकास की बुलंदियों को छुआ, लेकिन हमारा दुर्भाग्य रहा कि विकास और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपनी मातृभाषा व बोली को पीछे छोड़ते चले गए।

आज हम एक-दूसरे से कटते जा रहे हैं। दिमागों से अक्षरकोश कम हो रहा है। संवेदना के हर बिंदु को व्यक्त करने वाला शब्द भंडार सूख रहा है। एक सॉरी शब्द में हमने दु:ख, खेद, शोक और क्षमा के अलग-अलग भावों की हत्या कर दी। एक अंकल शब्द ने चाचा, काका, मामा, ताऊ, फूफा और मौसा जैसे रिश्तों का अंतर और खुशबू कपूर की तरह उड़ा दी। यह तो महज बानगी है।

बोलियों की उप-धाराएं सूख रही

गहराई से सोचेंगे तो पाएंगे कि हमारी मातृभाषाओं और बोलियों की उप-धाराएं सूख रही हैं। बघेली एक दशक पहले तक विंध्य के जन-जन की भाषा थी। इसकी मिठास दूसरी भाषाओं को भी अपनी ओर खींचती थी। लेकिन, वर्तमान में अपनी मातृभाषा बघेली देशी साहित्य एवं कविता-कहानियों में सिमट कर रह गई है। कभी विंध्य प्रदेश के माथे की बिंदी रही बघेली का दायरा सिमट रहा है।

बघेली पूर्वी हिंदी की प्रमुख बोली
बघेली पूर्वी हिंदी की प्रमुख बोली है। उसका मूल नाम रिमहाई था। पर यह स्थानवाची नाम उससे छिनकर जातिवाची हो गया, इसकी विभाजन रेखा स्पष्ट नहीं है। फिर भी यह मानना होगा कि अद्र्धमागधी अपभ्रंश से रिमहाई तक आने में जितना समय लगा होगा, उससे लगभग दोगुना समय बघेली तक आने में लगा होगा। आठवीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी के बीच में यह रिमहाई बोली कही जाती थी। बघेली के आगमन के बाद 13वीं शताब्दी तक यह नाम चलता रहा।

बघेली में जान फूंक रही आकाशवाणी
बघेलखंड में बघेली भाषा का सूरज अस्त नहीं होगा। बोल-चाल में बघेली की चमक पहले की तरह बनी रहे, इसके लिए एक नहीं कई संस्थाओं की ओर से सकारात्मक कदम उठाए गए हैं। कोशिश यह है कि बघेलखंड में बघेली अपने मूल रूप में बनी रहे। इसके लिए आकाशवाणी रीवा केंद्र ने विस्तृत रूपरेखा तैयार की है। एक-दो नहीं, बल्कि कई कार्यक्रमों के जरिए बघेली को मूल रूप में बनाए रखने के प्रयास किए जा रहे हैं।

युवा कवियों की कविताओं में व्यापक अंतर

केंद्र के अधिकारी विपिन यादव के मुताबिक, करीब एक वर्ष पहले कार्यक्रमों की प्रस्तुति के दौरान यह महसूस किया गया कि बघेली के वरिष्ठ कवियों और युवा कवियों की कविताओं में व्यापक अंतर है। समय के साथ बघेली के मूल शब्द लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसा न हो, इसके लिए त्वरित गति से न केवल विशेष कार्यक्रमों की योजना बनाई गई। बल्कि केंद्र की ओर से प्रसारण भी शुरू कर दिया गया।

पहचान कायम रखने में जुटा एपीएस विवि
आ काशवाणी केंद्र के साथ ही अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी बघेली को बघेलखंड की पहचान बनाए रखने की योजना बनाई है। विवि की ओर से इसके लिए बकायदा बघेली प्रकोष्ठ की स्थापना की गई है। हिंदी विभाग के अंतर्गत आने वाले इस प्रकोष्ठ में न केवल बघेली पर आधारित दुर्लभ रचनाएं उपलब्ध होंगी, बल्कि प्राध्यापकों व पीएचडी छात्रों द्वारा इस पर विस्तृत शोध किया जा रहा है। विभागाध्यक्ष प्रो. दिनेश कुशवाह के मुताबिक कुलपति प्रो. केएन सिंह यादव के विशेष निर्देश पर प्रकोष्ठ को विस्तृत रूप देने की तैयारी की जा रही है। विवि द्वारा गठित किए गए इस प्रकोष्ठ को राज्य शासन की ओर से भी आवश्यक मदद किए जाने का आश्वासन दिया गया है।

स्वयंसेवी संस्थाएं भी कर रहीं कार्य
ब घेली का सितारा हमेशा के लिए बुलंद रहे, इसको लेकर स्वयंसेवी संस्थाओं, कवियों और साहित्यकारों की ओर से भी विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। कालिका प्रसाद त्रिपाठी, चंद्रिका प्रसाद चंद्र, जगजीवन लाल तिवारी, सुधा कांत बेलाला, राम नरेश तिवारी 'निष्ठुर', शिवशंकर त्रिपाठी शिवाला सहित अन्य कवि व साहित्यकार अपनी रचनाओं के जरिए बघेली की चमक को बनाए रखे हैं। उनकी ओर से कोशिश जारी है।

तीन राज्यों तक थी धमक
बघेली मध्य प्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ व उत्तरप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। मध्य प्रदेश में रीवा, सतना, सीधी, उमरिया, अनूपपुर तथा छत्तीसगढ़ में बिलासपुर व कोरिया और उत्तरप्रदेश में इलाहाबाद व मिर्जापुर जिले में बघेली बोली सुनने को मिल जाती है।

जानना जरूरी है
विंध्य की साहित्य परम्परा का प्रस्थानबिंदु जगनिक का 'आल्हखंडÓ तथा बान्धवेश कर्णदेव के शासनकाल में लिखा गया ज्योतिष ग्रंथ 'सारावलीÓ को माना जा सकता है। महाराज कर्णदेव के पश्चात लगभग २५० वर्षों तक साहित्य-सृजन की धारा क्षीण रही। सोलहवीं शताब्दी में महाराज वीरदेव, वीरभान, रामचंद्र और वीरभद्र के काल में प्रसुप्त धारा को पुन: गति मिली। यद्यपि ये नरेश स्वयं कवि नहीं थे, फिर भी इनका साहित्यानुराग विंध्य की साहित्य परम्परा में मील का पत्थर है।

विदेशों में लहराया रिमही भाषा का परचम
रिमही भाषा अर्थात बघेली, सिर्फ बोल-चाल की भाषा नहीं है। यह बोली काव्य के रूप में विंध्य के किसान, दलित एवं शोषितों की आवाज भी बनी। भ्रष्टाचार एवं कुरीतियों पर कुठाराघात करतीं बघेली की कविताएं और नाटकों ने विंध्य ही नहीं पूरे देश में रिमही भाषा का परचम लहराया। बघेली भाषा आज जन-मानस के बीच भले ही उपेक्षा का शिकार है, लेकिन बघेली साहित्य ने इस भाषा को अपने अंदर सदा के लिए समेट लिया है। बघेलखंड में ऐसे कई कवि हुए, जिनके बघेली काव्य ने विंध्य प्रदेश को नई पहचान दी। बघेलखंड की कला, संस्कृति एवं सामाजिक रहन-सहन को रिमही भाषा के कवियों ने बड़ी ही सहजता से समेटा है।