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शिवपुरी

यहां सजती है बच्चों की मंडी, मां-बाप लगाते बेटों की बोली, तब घरों में जलता है साल भर चूल्हा

आदिवासियों के पास न तो रोजगार है और न जमीन, पेट पालने के लिए बच्चों को रख रहे गिरवी

शिवपुरीSep 23, 2019 / 06:46 pm

Muneshwar Kumar

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बदरवास/शिवपुरी/ सरकार भले ही आदिवासियों के उत्थान के लाख दावे करती हो, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी इस समाज के लोग इतने गरीब हैं कि अपने कलेजे के टुकड़े को गिरवीं रखकर पेट की ज्वाला शांत करने को मजबूर हैं। #KarjKaMarj सीरीज में हम आपको ऐसे ही किसानों और आदिवासियों का दर्द दिखा रहे हैं। कोई कर्ज से बचने के लिए अपने बेटे को गिरवी रख रहा है तो किसी ने साहूकारों के कर्ज को चुकाने के लिए घर गिरवी रख परिवार को छोड़ दिया।

दरअसल, शिवपुरी जिले स्थित बदरवास के ग्राम मुढ़ेरी सहित राजस्थान बॉर्डर पर कई ऐसे गांव हैं, जहां रहने वाले गरीब आदिवासी परिवार अपने किशोर बच्चों को राजस्थान से आकर ऊंट व भेड़ चराने वालों के हाथों गिरवी रख देते हैं। पांच हजार रुपए महीने में सौदा तय करके अपने बच्चे को उस भेड़ मालिक के साथ जंगल में पहुंचा देते हैं। पांच से छह माह तक वो बच्चा उस भेड़ मालिक के मवेशियों को चराता है और यदि किस्मत रही तो वापस घर भी आ जाता है, अन्यथा कई बार तो बच्चे जंगल में रहते हुए किसी जहरीले जीव-जन्तु का शिकार होकर मर भी जाते हैं।
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भेड़ चराने के लिए बच्चों को ले जाते
गौरतलब है कि हर साल बरसात खत्म होने के बाद राजस्थान से दर्जनों की संख्या में भेड़ मालिक (रेबाड़ी) अपनी हजारों भेड़ और ऊंट लेकर शिवपुरी जिले के जंगल की ओर रुख करते हैं और यह पूरी गर्मियों में यहां-वहां जंगल में पानी के आसपास अपने डेरे बनाते हैं। रेबाड़ी बियावान जंगलों में रहते हुए अपने मवेशियों से हरियाली चरवाते हैं। इसके लिए उन्हें चरवाहों की जरूरत होती है और इस काम के लिए वे नई उम्र के किशोर को चुनते हैं, क्योंकि वो एनर्जिक होने के साथ ही उनके मवेशियों का जंगल में अधिक ख्याल रख पाते है।
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बच्चों को रखते हैं जंगल में
11 से 16 वर्ष आयु के इन बच्चों को रेबाड़ी अपने साथ बियावान जंगल में ले जाते हैं और किसी एक जगह डेरा डालकर आसपास के जंगल को चरवाते हैं। जब एक डेरे के आसपास की हरियाली खत्म हो जाती है तो फिर वे कुछ और आगे बढ़ जाते हैं। इस दौरान बच्चे को खाने-पीने की व्यवस्था वो भेड़ मालिक ही करता है। यानि उस बच्चे के पालक छह माह तक वो भेड़ मालिक हो जाते हैं। अभी वर्तमान में मुढ़ेरी सहित आसपास के लगभग दो दर्जन बच्चे इसी तरह गिरवी रहकर रेबाडियों के साथ उनके मवेशियों को चरा रहे हैं। गर्मियों में उनकी मेहनत और भी अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि जंगल में जब कहीं पानी नहीं मिलता, तो उन्हें ऐसे स्थानों पर जाकर रहना पड़ता है, जहां उनके मवेशियों व उनको पानी मिल सके। जिसके चलते वे पानी की तलाश में कई बार बहुत दूर तक निकल जाते हैं।
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पिता को रहता है रेबाड़ी का इंतजार
मुढ़ेरी गांव में रहने वाले आदिवासी परिवार अपने बच्चों को गिरवी रखने के लिए भेड़ वालों का इंतजार करते हैं। जब वे क्षेत्र में ऊंट-भेड़ लेकर आते हैं तो फिर वे गांव में ऐसे किशोरों की तलाश करते हैं और उनके माता-पिता से प्रति महीने की मजदूरी का सौदा करते हैं। कितने महीने तक वो गिरवी रहेगा, उसके अनुरूप एक मुश्त राशि परिवार वालों को दे दी जाती है और उसके बच्चे को जंगल में ले जाते हैं। पिता को जहां रेबाड़ी के आने का इंतजार रहता है, ताकि उसे एक मुश्त राशि मिल सके, वहीं मां उन महीनों को गिनती रहती है कि कब उसका बेटा जंगल के रास्ते से वापस अपने घर आएगा?
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यह बोले बच्चों को गिरवी रखने वाले अभिभावक
मुढ़ेरी निवासी कैलाश आदिवासी ने कहा कि मैने अपने बेटे को भेड़ वाले के पास गिरवी रखा है। क्योंकि जमीन है नहीं, कोई मजदूरी मिलती नहीं है, तो फिर हम अपने पेट की भूख कैसे शांत करें। इसलिए अपने बच्चे को गिरवीं रख देते हैं। पांच महीने तो कभी सौदा पट जाए तो छह महीने के लिए भी गिरवी रख देते हैं।

पिश्ता आदिवाासी ने कहा कि बेटा मजदूरी करने के लिए भेड़ चराने गया है। कभी छह महीने तो कभी एक साल के लिए भी गिरवी रख देते हैं। हमें एक साथ पैसा मिल जाता है, इसलिए हम अपने बच्चे को भेड़ वालों के साथ भेज देते हैं। यदि बच्चों को गिरवी नहीं रखें तो फिर हम खाएंगे क्या?।
गिरवी से पहले होता है एग्रीमेंट
ग्राम कोटरा, कोटरी, रामपुरी, खपरया नैनागिर गुढाल डांग मूढ़ेरी यह गांव राजस्थान बॉर्डर से लगे हुए हैं और करीब एक दर्जन से उपर बच्चे इन गांवों के उनके पास एग्रीमेंट के आधार पर गिरवी रखे है, एग्रीमेंट छह माह का होता है जो राशि तय होती है। वह दो किश्तों में मिलती है, एक एडवांस ओर दूसरी समय सीमा पूरी होने पर। कुछ बच्चे को गुजरात में भी ठेकेदार एग्रीमेंट कर फैक्ट्रियों में ले गए हैं।
मकान रख दिया गिरवी
वहीं, शिवपुरी शहर की शिव कॉलोनी में रहने वाली माया कुशवाह ने बताया कि बेटी की शादी के लिए पति जगदीश कुशवाह ने लगभग ढाई लाख रुपए कर्जा लिया था, जिसमें से डेढ़-पौने लाख रुपए चुका दिया, लेकिन कर्ज अभी भी ढाई लाख रुपए ही है। कर्जा पटाने के फेर में घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ी तो पति ने बाजार से कुछ और लोगों से भी कर्जा ले लिया। माया का एक बेटा चार पहिए के ठेले पर लहसुन-प्याज बेचता था, लेकिन कर्जदार बेटे को बाजार में बैठने नहीं देते, वे अपना कर्जा मांगते हैं तो बेटे ने ठेला लगाना बंद कर दिया। इतना ही नहीं माया अपने दो बेटों के साथ जिस घर में रहती है, उसे भी पति ने कर्जा चुकाने के फेर में गिरवी रख दिया।
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घर नहीं लौटा है पति
साथ ही पति भी पिछले करीब छह माह से घर नहीं आ रहा। ऐसे में माया और उसके बेटे इसी चिंता में हैं कि जिस दिन घर को गिरवी रखने वाला उनके आशियाने पर अपना हक जताने गया तो उनका क्या होगा? क्या वो आसमान के नीचे आ जाएंगे? मुख्यमंत्री ने साहूकारी प्रथा से बचाव के लिए जो नियम बनाए हैं, उसकी जानकारी नहीं है।

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