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पांव से घुंघरू उतारने के बाद अपनी ही बस्ती में पहचान की मोहताज है ये बार डांसर

एक दशक से नाम के मोहताज गणिकाओं को किसी ने भी अपना नाम नहीं दिया

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बार डांसर

सिद्धार्थनगर. इटवा को बिस्कोहर कस्बा जो कभी घुघरुओं की झंकार से गुलजार होता था आज वहीं कस्बा व गलियां उजडे़ चमन की तरह किसी माली का इंतजार कर रही है। जिनसे यह कस्बा गुलजार होता था वह भी आज गुमनामी के अंधेरे में गुम है। लोगों की नजरों में अच्छा बनने के लिए पैर से घुंघुरू उतारे तो गुमनाम हो गई। एक दशक से नाम के मोहताज गणिकाओं को किसी ने भी अपना नाम नहीं दिया। इनसे जो भी बच्चे हुए वह अस्तित्व में होते हुए भी गुमनामी के दलदल में इस कदर धंसे हैं कि वह अपनी ही बस्ती में ही पहचान के मोहताज हैं। राजनीति के गलियारों में इनको नई दुनिया में बसाने के सपने कई दिखाए गए लेकिन अभी तक किसी भी राजनीतिज्ञ ने इनके सपनों को आकार देने की कोशिश तो दूर पहल तक नहीं की। इससे आज भी इनके पति के नाम के रूप में पैसा, सिक्का, दौलत आदि लिखा जाता है। दो दो बार सत्ता में रहने के बाद भी विधाना सभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय ने भी इन्हे पहचान दिलाने के लिए कोई प्रयास ऩहीं किया।

इस बात का दर्द गणिकाओं का सबसे अधिक सालता है। जबकि उन्ही की विधनसभा क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले इस कब्से को टाउन एरिया भी बनाने का प्रयास किया गया। सपा के शासनकाल में इसकी घोषणा भी हुई थी लेकिन मामला सर्वेक्षण तक ही सिमट कर रह गया। हर बार चुनाव में वादे तो किए जाते है लेकिन इनके पहचान दिलाने के लिए अभी तक कोई काम नही किया गया। जिसको लेकर सभी में जबरदस्त गुस्सा है। सिद्धार्थनगर जिले के इटवा के बिस्कोहर कस्बे की पहचान गणिकाओं से पहले भी थी आज भी है। पहले यह संख्या सैकड़ों में भी लेकिन अब यह संख्या महज दर्जन भर तक ही सिमट रह गई है। बिस्कोहर कस्बे का पश्चिमी टोले में गणिकाएं बसी है। समय के साथ इन्होंने विरासत में मिले धंधे से दूर होकर नए समाज की दुनिया में जगह बनानी चाही तो किसी ने भी इनका साथ नहीं दिया। जिससे आज सभी पहचान की मोहताज है। बदलते समय के बीच बच्चे पैदा हुए तो उन्हें पिता की पहचान नहीं मिली। पत्नी की तरह कई ने रखा लेकिन किसी ने भी अपना नाम नहीं दिया। इससे यह भी खुद की पुरानी पहचान के अलावा कोई नया पहचान नहीं पा सकीं। इन्हें नागरिक का दर्जा मिला लेकिन किसी का नाम नहीं मिला। आज भी इनके पहचान पत्र पर पति के नाम के रूप में दौलत, पैसा, सिक्का आदि लिखा जाता है।

इसी तरह से इनसे पैदा हुए बच्चे भी अपनी ही बस्ती में पहचान के मोहताज है। किसी तरह से स्कूल में दाखिला तो हो जाता है लेकिन तानों की वजह से बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं पाते है। पहले यह संख्या सैकड़ों में भी लेकिन अब यह संख्या महज दर्जन भर तक ही सिमट रह गई है। बिस्कोहर कस्बे का पश्चिमी टोले में गणिकाएं बसी है। नागरिक का दर्जा मिला लेकिन किसी का नाम नहीं मिला। आज भी इनके पहचान पत्र पर पति के नाम के रूप में दौलत, पैसा, सिक्का आदि लिखा जाता है। इसी तरह से इनसे पैदा हुए बच्चे भी अपनी ही बस्ती में पहचान के मोहताज है। किसी तरह से स्कूल में दाखिला तो हो जाता है लेकिन तानों की वजह से बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं पाते है। राजनीति के गलियारों में इनको नई दुनिया में बसाने के सपने कई दिखाए गए लेकिन अभी तक किसी भी राजनीतिज्ञ ने इनके सपनों को आकार देने की कोशिश तो दूर पहल तक नहीं की। इससे आज भी इनके पति के नाम के रूप में पैसा, सिक्का, दौलत आदि लिखा जाता है। जिस कस्बे में पश्चिमी टोले में यह बसी उसका भी अपना एक अलग इतिहास रहा है। पहले यहां पर दर्जनों घरों में देह का करोबार होता था। लेकिन समय के साथ सभी ने बदलाव किया और समाज की मुख्य धारा से जुड़ने की कोशिश में इस कारोबार से दूर होने लगी। जिसका परिणाम यह रहा कि आज महज पांच या छह घर ही इस कारोबार से जुडे है। जिसके बिस्कोहर पश्चिमी टोले के नाम से जाना जाता है। जिन्होंने अपना करोबार छोड दिया है वह पश्चिमी के बजाय किसी और टोले अथवा सामने जाकर बस गए हैं।

बाक्स विरासत में मिले धंधे से दूर होना चाहते हैं यहां की गणिकाओं की बात करें तो अब यहां पर घुंघुरू नहीं बजते, घुंघुरू की जगह देह व्यापार ने ले लिया। समय के साथ सौ घरों का कुनबा अब चार पांच घर में ही सिमट गया है जहां पर यह धंधा होता है। वह भी इससे दूर होना चाहते है लेकिन उनके पास किसी का साथ व सहयोग नहीं है। जबकि दर्जनों परिवार आज भी बदतर हाल में जीवन बसर कर रहे है लेकिन धंधें में वापस नहीं आना चाहते है। सभी अपने साथ-साथ अपने बच्चों को भी पहचान देना चाहते है। यहीं कारण है कि गणिकाएं अब घर भी बसाने लगी है। कई ने दूर दराज के क्षेत्र के लोगों के साथ घर बसाकर अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी है तो कई अपने पुराने व दूर के रिश्तेदारी में पहचान के लिए बस गई है। यहां की आबोहवा के साथ जिन्दगी की राह बदलने लगी है बस जरूरत है तो हमराह की। जो इन बेबस परिवारों की जिन्दगी बदल दे। बाक्स स्कूलों में कुछ ही दिन पढ़ पाते हैं बच्चे गणिकाएं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती है, इसके लिए वह उन्हें स्कूल भी भेंजती है लेकिन वहां पर गडे़रिया के नाम पर मिलने वाले तानों से बच्चे भी कुछ दिनों के बाद स्कूल छोड़ देते है। इससे वह फिर से जिन्दगी के दो राहे पर आकर खडे़ हो जाते हैं। जैसे मेहनत करने की उम्र होती है वह अपनी जिन्दगी को पटरी पर लाने के लिए जद्दोजदह शुरू कर देते हैं। आसपास के इलाकों के साथ ही पड़ोसी जनपद पर अन्य राज्यों में रोजगार की तलाश में भटकते है लेकिन अपनी पुरानी जिन्दगी में वापस नहीं आना चाहते हैं।

BY- Suraj


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