
माउंट आबू . ऐसे लेते थे युवा होली हुड़दंग का आनंद।
माउंट आबू. दिनोंदिन युवा वर्ग का होली के प्रति लगाव कम होता जा रहा है।
सामाजिक परंपरा के रूप में होली का अनूठा महत्व रहा है। फाल्गुन मास की दस्तक के साथ क्षेत्र में शुरू हो जाता है होली का हुड़दंग, लेकिन बढ़ी नशे की प्रवृति, झगड़े-फसाद, छेड़छाड़ की घटनाओं ने इस पर्व की परंपराओं को खतरे में डाल दिया है। आधुनिकता की चकाचौंध से परंपराएं दम तोड़ने लगी है।
परिवार में प्रथम संतान के जन्म की पहली होली पर पीहर पक्ष व सगे संबंधी नए कपड़े, गुड़, सोने-चांदी के जेवर भेजा करते थे। पुत्र जन्म पर होली से दस दिन पूर्व से रात्रि में उस घर के आस-पास की महिलाओं को आमंत्रित कर खुशी के गीत गाए जाते, जिसे सांझी कहा जाता है। पुत्र जन्म पर उस परिवार के सगे संबंधी थालियां भर गुड़ ले आते, जिसको गीत गाने को आने वाली महिलाओं में बांटा जाता। दामादों को आमंत्रित कर समाज को बुलाकर भांग की मनुहार होती। सभी लोग भांग की तरंग में मदमस्त होकर झूमने लगते। इसका खर्च दामाद वहन करते। बदले में परिवार की ओर से दामादों को पूरे समाज के समक्ष कपड़ों, सोने-चांदी के गहने उपहार देकर समानित करते, जिसे ओढ़ामनी कहा जाता है। समय के साथ अब लोग काम-धंधों में व्यस्त हो गए कि यह परंपरा दम तोड़ने लगी है।
बच्चे के जन्म के बाद प्रथम होली पर उसे ढूंढने की प्रथा है। इससे होली दहन के बाद बच्चे को नए वस्त्र पहनाकर घर में पाट पर बिठाकर समाज के नवयुवकों द्वारा ढूंढ जाता है। शादी के बाद पहली होली पर विवाहित व्यक्ति को दूल्हे राजा के परिधान पहनाकर गाजे बाजे के साथ होली दहन स्थल पर ले जाते थे। वहां होलिका के चारों ओर चार फेरे लेकर घर लौटते, जिसे जैती कहा जाता था। यह रिवाज कुछ जातियों को छोड़ अब करीब-करीब समाप्त हो गया है।
बसंत पंचमी से लोग रात में चंग का लुत्फ उठाते थे। गली मोहल्लों में नवयौवनाएं शाम को गृहकार्य निपटाकर जाती थीं। अपनी साथिनों को गीत से बुलाती। यह सिलसिला देर रात तक चलता। युवतियां जब घर लौटती तो चौखट तक फाल्गुनी गीत गाती चलती।
निर्धारित जगह पर होली दहन के लिए कई दिनों पूर्व ही तैयारियां शुरू हो जाती। जिस घर में जेती व ढूंढ होती उस परिवार से लकड़ी की गठरी लाकर वहां रखी जाती।
होली से एक माह पूर्व गांव के प्रमुख चौराहे पर गैर नृत्य का आयोजन होता था। शाम ढलते ही नगाड़ों की आवाज के साथ गैरिये डांडिया लेकर वहां पहुंचते व देर रात तक नृत्य करते। गैर नृत्य से कई दिन पूर्व ही लोग लकड़ी की कटाई कर रंग रोगन कर व सिरे पर घुंघरू बांध इसे तैयार करते थे। कई लोग घुंघरू बांध कर नाचते।
शराब का चलन बढ़ा तो लोग नशे में गेर नृत्य में भाग लेने लगे। भांग का स्थान शराब ने ले लिया। पहले धुलंडी पर परस्पर अबीर-गुलाल लगाकर खुशी का इजहार करते थे। नई पीढ़ी का होली से मोहभंग हो रहा है।
बाबू सिंह परमार, ग्रामीण
Published on:
11 Mar 2025 03:29 pm
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