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निराला है करौली के चौबों की होली का अंदाज

करौली. बृज संस्कृति से ओतप्रोत करौली शहर में यूं तो होली की अनूठी परम्पराएं हैं। यहां होली पर बृज भाषा के होली गीतों के गायन की परम्परा विशेष प्रचलित हैं। इन गीतों में करौली में बसे यमुना पुत्र माथुर चतुर्वेदियों की होली गायन की शैली और अंदाज निराला है। इसे देख-सुन हर कोई झूम उठता है। राधा रानी और कृष्ण पर आधारित उनके होली गीत होते हैं। बृज संस्कृति से ओतप्रोत इस नगरी में फागुन माह में दिन हो चाहे रात, हर ओर से फाग गीतों की गूंज सुनाई देती है।

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निराला है करौली के चौबों की होली का अंदाज

निराला है करौली के चौबों की होली का अंदाज


प्रसिद्ध है चतुर्वेदियों के होली गीत
ब्रज भाषा में कृष्ण संग राधा-गोपी के होली खेलने के होते हैं ये गीत
करौली. बृज संस्कृति से ओतप्रोत करौली शहर में यूं तो होली की अनूठी परम्पराएं हैं। यहां होली पर बृज भाषा के होली गीतों के गायन की परम्परा विशेष तौर पर प्रचलित हैं। इन गीतों में करौली में बसे यमुना पुत्र माथुर चतुर्वेदियों की होली गायन की शैली और अंदाज निराला है। इसे देख-सुन हर कोई झूम उठता है। राधा रानी और कृष्ण पर आधारित उनके होली गीत होते हैं। साथ ही कुछ मनोरंजन के लिए रचित होली गीत भी गाए जाते हैं। बृज संस्कृति से ओतप्रोत इस नगरी में फागुन माह में फाग गीतों की फुहारें बिखरती हंै। दिन हो चाहे रात, हर ओर से फाग गीतों की गूंज सुनाई देती है। पहले तो यह सिलसिला होली के एक माह पहले से शुरू हो जाता था। अब आठ- दस दिन पहले से इन गीतों की गूंज सुनाई देने लगती है।
रियासत से चली आ रही परम्परा
करौली में ब्रज भाषा और मथुरा की चतुर्वेदी संस्कृति पर आधारित होली गीतों की लगभग एक शतब्दी से अपनी पहचान रही है। ये होली गीत कृष्ण-राधा और गोपियों के संग होली खेलने पर आधारित होते हैं। इनको चौबों की मंडली अलमस्त होकर गाती है तो राह चलते लोग भी ठिठक जाते हैं। करौली के चतुर्वेदी समाज की होली रियासत काल में पूरे परवान पर रही हैं जिनको तत्कालीन शासकों की ओर से काफी सम्बल मिलता था। रियासतकाल में होली के मौके पर राजदरबार की ओर से होली गायन के लिए आमंत्रण दिया जाता था और खुलकर गाने की छूट भी होती थी। इतिहासकारों के अनुसार राजा भंवरपाल, भौमपाल होली गीतों के विशेष शौकीन थे। इस समाज द्वारा गाई जाने वाली मौजनाथ की होली और निर्गुण होली गीत प्रसिद्ध हैं । ्रइनको समाज के लोग सामूहिक तौर पर गाते हैं। समाज में वैकुण्ठनाथ चतुर्वेदी, किशोरीलाल, गोपीचन्द, दाऊदयाल, गौरीप्रसाद, गणेशलाल, तपस्वीलाल, हजारी लाल, शान्तनु प्रसाद, शिम्भूदयाल चतुर्वेदी आदि की होली गीत गाने में खास प्रसिद्धी रही है। ये सभी दिवंगत हो चुके।
रंग-गुलाल के रूप में मिलता है समाज का आशीर्वाद
वर्तमान में ओमप्रकाश चतुर्वेदी, लेखराज, पूरणप्रताप चतुर्वेदी, कौशलेन्द्र, अरुण चतुर्वेदी आदि होली गीतों की परम्परा को निभा रहे हैं। समाज की मंडली के मुखिया ओमप्रकाश चतुर्वेदी बताते हैं कि पहले फागुन शुरू होते ही होली गीतों का गायन शुरू हो जाता था। अब केवल धुलण्डी के दिन ही समाज के घरों में मण्डली के सदस्य पहुंचते हैं और होली गीत गाते हैं। ढप-ढोलक और मजीरा के संग होली गीत गाए जाते हैं।
चतुर्वेदी समाज की होली के मौके पर शादी या पुत्र जन्म वाले घर में होली गीत गाने की परम्परा भी अनूठी है। समाज के पूरण प्रताप बताते हैं कि जिस परिवार में बच्चे का जन्म होता है और किसी घर में शादी होती है, तो उस शिशु और जोड़े को रंग-गुलाल रूपी आशीर्वाद समाज के पंचों की मण्डली द्वारा ही दिया जाता है। उस परिवार द्वारा पंचों को होली गाने को आमंत्रित किया जाता है, जिस पर पहली होली के मौके पर उस घर पर समाज के पंचों की मण्डली पहुंचती है। एक तरह से समाज की ओर से यह आशीर्वाद देने की परम्परा है। समाज के लोग स्थानीय भाषा में जाये-ब्याह की परम्परा बोलते हैं।