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करौली में होली गायन की परम्परा सवा सौ प्राचीन

करौली में होली गायन की परम्परा सवा सौ प्राचीन बृज मण्डल की संस्कृति से ओतप्रोत करौली में होली गीत गायन की परम्परा लगभग एक शताब्दी प्राचीन है।इस गायन में कृष्ण भक्ति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। इतिहास के अनुसार यहाँ की होली गायन एवं होली गीतों की रचनाओं के जन्मदाता राजा भ्रमर पाल को माना जाता है। करौली की होलियों में कृष्ण भक्ति की प्रधानता है। भक्ति भाव के साथ गायक कृष्ण को नायक तथा राधा एवं बृज की गोपियों को नायिका के रूप में व्यक्त करते हैं।

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करौली में होली गायन की परम्परा सवा सौ प्राचीन

करौली में होली गायन की परम्परा सवा सौ प्राचीन

करौली में होली गायन की परम्परा सवा सौ प्राचीन

बृज मण्डल की संस्कृति से ओतप्रोत करौली में होली गीत गायन की परम्परा लगभग एक शताब्दी प्राचीन है।
इस गायन में कृष्ण भक्ति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। इतिहास के अनुसार यहाँ की होली गायन एवं होली गीतों की रचनाओं के जन्मदाता राजा भ्रमर पाल को माना जाता है। उन्होंने 120 वर्ष पहले निर्गुण संप्रदाय के संत मौज नाथ को अपना आध्यात्मिक गुरू मानकर काव्य सृजन की शिक्षा प्राप्त की थी। मौजनाथ की गीत रचना के कौशल की बानगी उनके द्वारा रचित होली गीत हैं। तत्कालीन नरेश भ्रमरपाल ने अपने सतगुरु की प्रेरणा से भमरेश वाणी नामक काव्य ग्रंथ की रचना की। इस काव्य गं्रथ में निर्गुण होलिओं की भरमार है। इस ग्रंथ की रचना के बाद से करौली रियासत के प्रोत्साहन में अनेक गायकों ने अपनी मंडली बनाई और होली गीत गायन की शुरुआत की।
होली गीतों के रचनाकार एवं गायक नए-नए आते जाते रहे , लेकिन सभी ने संत मौजनाथ एवं राजा भंवर पाल को ही रचयिता मानते हुए होलियों की परंपरागत विशिष्टता को बनाए रखा। आज भी नई पीढ़ी के कलाकार उसी परम्परा पर चलकर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं।

करौली की होलियों में कृष्ण भक्ति की प्रधानता है। भक्ति भाव के साथ गायक कृष्ण को नायक तथा राधा एवं बृज की गोपियों को नायिका के रूप में व्यक्त करते हैं। साथ ही बृज मण्डल के नंदगाव ,बरसाना, गोकुल, मथुरा एवं यमुना नदी को गीतों में समाहित किया जाता है। निर्गुण होली गीतों में श्लेष अलंकार की प्रधानता रहती है।
मौजनाथ की छाप वाली होलियों में परा, पश्यंती, मध्यमा एवं वैखरी वाणी पद्य रचना के आधार हैं । मौजनाथ की गायन मंडली के गायनाचार्य लटूर राम थे। पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों में हरेत गुरू, गोपी चौबै, सत्यनारायण एवं नंदलाल स्वर्णकार प्रमुख माने जाते हैं। पुराने गायकों की एक टीम थी, जिसके खलीफा पंडित कजोड़ी लाल उर्फ टुच्ची गुरु थे। रमेश चंद शर्मा उर्फ लेजम, सोनी फरेटिया के अलावा चतुर्वेदी समाज के अनेक गायकों की पहचान थी। इस टीम के दुर्गालाल शर्मा आज भी युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत है।
मौजनाथ की होलियों की पृष्ठ भूमि में करौली वासियों के आराध्य श्री मदनमोहन जी को होली का रसिया तथा राधिका को नायिका के रूप में संबोधित करते हैं।
वास्तव में करौली का मदनमोहनजी मंदिर ही होली गीत गायन का केंद्र बिन्दु है, जहां बसंत के आगमन के साथ ही चंग की थाप पर होली गायन प्रारम्भ हो जाता है। होली गायकों का चंग बजने के साथ ही अन्य रसिकों के पैर गीतों पर थिरकने लगते हैं। फाल्गुनी रास रंग में रचे बसे मदनमोहन जी के दर्शनार्थी भी होली गायकों के साथ गाने पर मजबूर होते हैं। अनेक लोग अपने घरों पर भी सांस्कृतिक संध्या का आयोजन करते हैं।
पहले नवयुवक मण्डल प्रति वर्ष होली गायन के लिए महा मूर्ख सम्मेलन का आयोजन कराता था ,जिसमें बाहर के गायक भी आमंत्रित किए जाते थे। कुछ वर्षों से शहर में होली गीत गायन के लिए महिला मंडली सक्रीय हुई हैं। होली गायन परंपरा करौली में 120 वर्षों से निरन्तर चल रही है। इस सांस्कृतिक परम्परा को बनाए रखने के लिए प्रशासन की भागीदारी नितांत आवश्यक है।