
EXPLAINER : आखिर क्या है नोट छापने का गणित
जयपुर. जब हम बच्चे थे तो आश्चर्य होता था कि सरकार को नोट छापने से कौन रोक सकता है? क्यों सरकार बहुत सारे नोट छापकर अपने नागरिकों को नहीं बांट देती। हम यह भी सुनते थे कि फलां व्यक्ति ज्यादा पैसा कमाता है, इसलिए वह अमीर है। यानी अमीर-गरीब का अंतर पैसा ही है तो सरकार सभी नागरिकों को पैसा बांट दे ताकि सभी आदामदायक जीवन जी सकें। असल में, मंदी के समय देश मुद्रा प्रिंटिंग का सहारा लेते हैं, जिसे क्वांटिटेटिव ईजींग (क्यूई) कहते हैं। ये शब्द 2008 की मंदी के बाद प्रचलित हुआ। लेकिन यह उपाय चरम स्थितियों के लिए है और खतरनाक भी माना जाता है। क्योंकि मुद्रा छापने से महंगाई बढ़ती है और यदि आप अधिक पैसा छापते हैं तो अत्यधिक मुद्रा स्फीति के हालात बन जाएंगे। मुद्रा स्फीति का अर्थ है मुद्रा के मूल्य में गिरावट। तीन साल पहले यह गलती अफ्रीकी देश जिम्बाब्वे कर चुका है। इसके बाद वहां मुद्रा का मूल्य इतना गिर गया कि जिम्बाब्वे के ढाई करोड़ डॉलर एक अमरीकी डॉलर के बराबर रह गए। यानी अंडे और बे्रड जैसी जरूरी चीजें खरीदने के लिए लोगों को थैले भरकर डॉलर ले जाने पड़े। ऐसे ही हालात लैटिन अमरीकी देश वेनेजुएला में सामने आया। इसलिए मुद्रा की गिरती कीमत को थामने के लिए अवमूल्यन जरूरी होता है।
कोई देश कितनी राशि प्रिंट कर सकता है?
इसके लिए कोई निश्चित पैमाना नहीं है, जो केंद्रीय बैंक निर्धारित करता है। बस वस्तुओं और सेवाओं के हस्तांतरण को सुचारू बनाने के लिए पर्याप्त हो और मुद्रा का मूल्य भी बना रहे। नोट छापने से पहले सरकार और केंद्रीय बैंक, जीडीपी, विकास दर और राजकोषीय घाटे की समीक्षा करते हैं। आमतौर पर केंद्रीय बैंक कुल जीडीपी का 2-3 फीसदी पैसा छापते हैं। भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में 2-3 फीसदी से ज्यादा पैसा प्रचलन में है।
एक बार में कितने नोट छाप सकता है आरबीआई
नोटों की छपाई न्यूनतम रिजर्व सिस्टम के आधार पर तय की जाती है। यह प्रणाली भारत में 1957 से लागू है। इसके अनुसार आरबीआइ को यह अधिकार है कि वह आरबीआई फंड में कम से कम 200 करोड़ रुपए मूल्य की संपत्ति अपने पास हर समय रखे।
कितना पैसा पर्याप्त है?
अब सवाल ये है कि सरकार को कितनी मुद्रा को सर्कुलेट करना चाहिए, ताकि वस्तु और सेवाओं का पर्याप्त लेन-देन किया जा सके। मान लीजिए भारत एक वर्ष एक किलो चावल का उत्पादन करता है। अब सरकार एक रुपए के 100 नोट छापकर 100 रुपए बना सकती है अथवा एक रुपए के 200 नोट छापकर 200 रुपए। दोनों स्थितियों के बीच कोई अंतर नहीं है। बस, या तो हम एक किलो चावल 100 रुपए में खरीदें या 200 रुपए में। यही मुद्रा के मूल्य का आधार है।
अधिक मुद्रा या वृद्धिशील मुद्रा आपूर्ति
मान लीजिए, हमारे पास एक रुपए के केवल 100 नोट हैं और हमारे देश में 200 लोग हैं। इसलिए हर किसी को लेन-देन में 200 नोटों की आवश्यकता है। ऐसे ही कुछ सिद्धांत मुद्रा के आकार को बढ़ाते हैं। हालांकि वृद्धिशील मुद्रा की आपूर्ति का उत्पादन आनुपातिक होना चाहिए, अन्यथा यह मुद्रा का अनावश्यक प्रसार संभव है।
हर कोई क्यों नहीं करोड़पति बन जाता?
कल्पना करें सरकार मुद्रा छापकर हर नागरिक के खाते में एक करोड़ रुपए स्थानांतरित कर देती है। अब हर कोई करोड़पति बन जाएगा। वे लोग भी कार, एयर कंडीशनर और फ्रिज खरीदेंगे, जो पहले खरीदने में सक्षम नहीं थे। फिर क्या होगा? एक साथ क्रय शक्ति बढऩे से वस्तुओं और सेवाओं की मांग भी बढ़ जाएगी। मांग बढऩे से महंगाई सातवें आसमान पर पहुंच जाएगी। जो वस्तु पहले 1 रुपए में मिलती थी, अब 100 रुपए में मिलने लगेगी। करोड़ों रुपए के बावजूद वही स्थिति।
निष्कर्ष ये है
अमीर बनने के लिए किसी भी देश को अधिक प्रतिस्पर्धी और तकनीकी रूप से उन्नत होने की आवश्यकता है। अनुपात से अधिक धन छापने से महंगाई और मुद्रा स्फीति की स्थिति ही पैदा होगी।
कुछ जानने योग्य बातें
-21.01 लाख करोड़ कीमत के नोटों का चलन था वित्तीय वर्ष 2019-20 में, जो पिछले वर्ष के मुकाबले 17 फीसदी अधिक है।
-108.76 अरब नोटों का सर्कुलेशन था देश में पिछले वर्ष
-महाराष्ट्र के नासिक और मध्यप्रदेश में आरबीआई की देखरेख में छापे जाते हैं नोट। इसके अलावा कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में भी दो छापेखाने हैं।
-मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता और नोएडा में सिक्के ढालने का काम होता है।
-देवास से आती है नोटों की छपाई में प्रयुक्त होने वाली स्याही। सिक्किम की सिकपा यूनिट में उभरे हुए अक्षरों की स्याही बनती है।
Published on:
12 Aug 2020 11:39 pm
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