जबरी गैर के साथ खेली जाती है बारूदी होली
मेनार (उदयपुर). होली रंगों का पर्व है। मेवाड़ में इस दिन से जुड़ी स्मृतियों के कई रंग हैं। उदयपुर जिले के बर्ड विलेज मेनार में होली पर शौर्य और इतिहास की झलक देखने को मिलती है। यहां धुलंडी के अगले दिन कृष्ण पक्ष द्वितीया को बारूद से होली खेली जाती है। जिसमें तलवारों और बंदूकों की आवाज से हूबहू युद्ध का ²श्य देखने को मिलता है। इस साल यह मुख्य पर्व जमरा बीज होलिका दहन के दूसरे दिन यानी 8 मार्च रात्रि को मनाया जाएगा।
तलवारों से खेली जाती है जबरी गेर
मेनार की जबरी गेर देशभर में विख्यात है। आमतौर पर अनेक जगहों पर नर्तक अपने हाथ में खाण्डा (लकड़ी की छड़ी) के साथ एक बड़े घेरे में नाचते हुए गेर खेलते हैं, लेकिन मेनार में खेली जानी वाली जबरी गेर इसे उलट है। यहां सिर्फ पुरुष ही गेर खेलते हैं वो भी हाथों तलवारें लेकर। इसमें तेजी से पद संचालन और डांडियों की टकराहट से तलवारबाजी और पट्ट युद्ध का आभास होता है।
जमराबीज के दिन हर कोई घर लौट आता है
अमूमन देखा जाता है कि राज्य से बाहर या विदेश में काम करने वाले लोग दीपावली के दिन गांव लौटते हैं, लेकिन मेनार में दीपावली से भी ज्यादा उत्साह जमराबीज पर होता है। अन्य राज्यों या विदेश में कार्यरत गांव के युवा भले ही दीपावली पर न आएं, लेकिन जमरा बीज पर अवश्य आते हैं।
सवा चार सौ वर्षों से चली आ रही परंपरा
मेनार गांव में करीब सवा 400 वर्षो से शौर्य पर्व जमराबीज मनाने की परंपरा चली आ रही है। इस दिन गांव का मुख्य ओंकारेश्वर चौराहा सतरंगी रोशनी से सजाया जाता है। रणबांकुरा ढोल बजता है। दोपहर में शाही लाल जाजम ओंकारेश्वर चबूतरे पर बिछाई जाती है। जहां मेनारिया समाज के प्रमुख लोग पारंपरिक वेशभूषा में बैठते हैं। यहां अम्ल कुसमल की रस्म होती है। निर्धारित स्थानों पर अलग-अलग मोहल्लों से लोग इक_ा होते हैं। रात करीब साढ़े 10 बजे पांचों रास्तों से लाल पाग पहने ग्रामीण गांव के मध्य पहाड़ी पर ओंकारेश्वर चौराहे की तरफ बंदूकें दागते हुए मशाल के साथ बढ़ते हैं। फेरावतों के इशारे पर एक साथ एक समय पर हवाई फायर कर तलवारों को लहराते हुए कूच करते हैं। सारा गांव आतिशी नजारों से गूंज उठता है और युद्ध का सा ²ष्य बन जाता है। बुजुर्गों के इशारों पर एक तरफ से युद्ध खत्म होने का ऐलान होता है, लेकिन बंदूकों के दागने का दौर नहीं थमता। फिर मुख्य चौक से अबीर गुलाल छांटी जाती है। जिसके बाद आतिशबाजी बंद होती है। ग्रामीण रणभेरी ढोल के साथ जमरा घाटी की तरफ बढ़ते हैं। जहां दोनों तरफ मशाल के साथ पुरुष खड़े होते हैं। इसी बीच गांव की महिलाएं होली को अघ्र्य देने थंब चौक जाती है। मेनार और मेनारिया समाज के इतिहास का वाचन होता है।
ये है गौरवशाली इतिहास
जब महाराणा प्रताप के अंतिम समय में समूचे मेवाड़ में जगह-जगह मुगल सैनिक छावनियां डाले थे। इस दौरान मु$गल शासक अकबर ने अपने पुत्र को मेवाड़ पर आधिपत्य करने भेजा। जिसने जगह जगह चौकियां स्थापित की। मुगलों ने तकरीबन 10 वर्ष तक तक मेवाड़ को अपने अधीन करने की कोशिश की, लेकिन महाराणा अमर ङ्क्षसह प्रथम से हमेशां मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। इसी समय मुगलों की मुख्य चौकी उठाला वल्लभगढ़ में स्थापित थी, जिसकी उप चौकी चित्तौड़ मेवाड़ के मुख्य मार्ग मेनार में स्थापित थी। महाराणा प्रताप के देहांत के पश्चात हरावल दस्ते की होड़ में सेनाएं कमजोर होने लगी थी। वहीं मु$गल सैनिकों के आतंक से जनता दुखी थी। तब यहां के मेनारिया ब्राह्मणों ने योजनाबद्ध तरीके मु$गल सेना को यहां से हटाने की योजना बनाई। ठाकुर जी के मंदिर के यहां ओंकारेश्वर चबूतरे पर बैठक हुई। जिसमें योजनाबद्ध तरीके से मु$गलों को यहां से उखाड़ फेंकने निर्णय हुआ। उन्होंने मुगलों के थाने पर एक साथ हमला बोल मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जबरी युद्ध हुआ जिसमें कुछ लोग शहीद हुए। यह विक्रम संवत 1657 एवं सन् 1600 चैत्र सुदी द्वितीया का दिन था। उसी दिन से ये जीत के जश्न की परंपरा चली जा रही है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी अपनी पुस्तक द एनालिसिस ऑ$फ राजस्थान में मेनार का मणिहार नाम से उल्लेख किया है। इसका उल्लेख अन्य किताबों में भी मिलता है।