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नन्हेे उमेश की कहानी सुन हो जाएंगी आंखें नम..पहले एचआईवी ने मां-बाप छीने, अब तीन साल से बंधा है खूंटे पर

देख-बोल नहीं सकता उमेश, दादा-दादी को डर कि कहीं और कोई बड़ी अनहोनी न हो जाए

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हंसराज सरणोत/ फलासिया . कोल्यारी में आठ साल के उमेश का भविष्य भी उसकी आंखों की तरह दिन-ब-दिन धुंधलाता जा रहा है। वह तीन साल से मवेशियों की तरह बंधा है। सर्दी-गर्मी हो या बारिश, गोबर और गाय-बैलों के मूत्र के बीच बाड़े का खूंटा ही उसका ठिकाना है। बच्चा दिमागी रूप में तो बीमार है ही, देख और बोल पाने में भी अक्षम है। एचआईवी से माता-पिता की मौत के बाद उमेश की यह हालत है। दादा-दादी उसे संभालते हैं, लेकिन इलाज कराने में बेबस हैं। सवालों पर वृद्ध दंपती सिसक उठा। भरी आंखों से पति-पत्नी ने कहा, घर का गुजारा ही मुश्किल है, फिर पोते का इलाज कैसे और कहां करवाएं।

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पता चलते ही राजस्थान पत्रिका ने टोह ली। मार्मिक कहानी सामने आई। बुजुर्ग दंपती ने बताया कि उमेश तीन साल की उम्र तक दूसरे बच्चों की तरह पला-बढ़ा। पिता भगवतीलाल दरोगा ड्राइवर था, जो ज्यादातर घर से दूर ही रहता था। उमेश के जन्म के बाद परिवार का ज्यादातर समय उदयपुर शहर में बीता। बच्चा तीन साल का था, तभी भगवतीलाल की मौत हो गई। वह एचआईवी की चपेट में था। मां मनुदेवी बेटे को ले कोल्यारी लौट आई। उसने नया रिश्ता जोड़ा, लेकिन उन्हीं दिनों उमेश बीमार हो गया। डेढ़ महीने अस्पताल में रहा, एक सप्ताह से ज्यादा आईसीयू में इलाज चला। फिर भी जाने क्या हुआ कि उसकी दिमागी हालत कमजोर हो गई। शुरुआत में पता नहीं चला। मनु संभालती रही, लेकिन एक साल बाद उसकी भी मौत हो गई और नाता करने वाले ने उसे दादा-दादी के पास छोड़ दिया। उसकी गतिविधियां असामान्य थीं। बुजुर्ग दंपती सिर्फ उसकी प्रतिक्रियाओं से बच्चे की भूख-प्यास और दूसरी जरूरतों का अनुमान लगाता और समाधान का प्रयास करता है।

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कहां गए बाल अधिकारों के पैरोकार
उमेश की हालत उन सभी संस्था-संगठनों के लिए किसी सवाल से कम नहीं, जो बाल अधिकारों की पैरवी में सक्रिय हैं। फिर आदिवासी बहुल झाड़ोल उपखंड क्षेत्र और उदयपुर जिले में तो ऐसी संस्थाओं की कमी भी नहीं है। यहां तक कि कोल्यारी पंचायत मुख्यालय पर ही दो से तीन संस्थाएं बाल अधिकारों पर काम करने का दावा कर रही हैं। बुजुर्ग दंपती चाहता है कि पोते का इलाज हो जाए, लेकिन पहली परेशानी माली हालत की है और दूसरी उनकी आशंका। उन्हें डर है कि बच्चे के साथ अब कुछ ऐसा न हो जाए कि वह और भी संकट में आ जाए। वैसे ही उसकी दुश्वारियां कम नहीं हैं। यहां एक सवाल एचआईवी पीडि़तों को लेकर होने वाले सरकारी कामों पर भी उठ रहा है। पीडि़तों और ऐसे परिवारों सामाजिक सुरक्षा के दावे तो होते हैं, लेकिन उमेश के मामले में ऐसा कुछ नहीं दिखता।