
फलासिया . उदयपुर जिले में झाड़ोल उपखंड क्षेत्र के 3500 से ज्यादा किसानों ने 525 बीघा जमीन पर महज 52 हजार किलो बीज से 13 करोड़ रुपए मूल्य की मूसली उपजाई है। आदिवासी बहुल यह क्षेत्र मूसली हब के रूप में विकसित हो सकता है, बस जरूरत सरकारी इच्छा शक्ति की है। उदयपुर में ग्लोबल राजस्थान एग्रीटेक मीट होने जा रही है, जिसमें कृषि क्षेत्र के नवाचारों पर ही चर्चा होगी। ऐसे में झाड़ोल के मूसली उत्पादक किसान भी सरकार और कृषि विभाग से आस लगाए हुए हैं।
सफेद सोने के नाम से मशहूर मूसली की खेती में किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती इसे बेचने की है। क्षेत्र के किसानों की यह उपलब्धि तब और भी बड़ी हो जाती है, जबकि मूसली की खेती न तो कृषि विभाग की प्राथमिकता में है, न ही विभाग इसके लिए किसानों की खुले रूप से कोई सहायता देता है। जानकारों का मानना है कि विभाग सहायता करे तो झाड़ोल क्षेत्र के किसानों की तकदीर बदल सकती है।
महत्व : आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथ ने भी माना
सफेद मूसली को ताल मूसली, हेमपुष्पा, तालपत्री, महावृष्या, धोली मूसली, खेरूवा और कोली नामों से पहचानी जाने वाली इस फसल का वानस्पतिक नाम क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनम है। यह एक देशज आयुर्वेदिक पौधा है, जो मानसून के आगमन के साथ ही दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में उग आता है। झाड़ोल तहसील क्षेत्र के आदिवासी परिवार मूसली की पत्तियों सहित सूखी मूसली को खाने में लेते हैं।
दाल-सब्जियां पकाते समय एक या दो सूखी जड़ें डाल दी जाती हैं, ताकि इसके औषधीय फायदे पूरे परिवार को मिल जाएं। आयुर्वेद के विशेषज्ञ बताते हैं कि सफेद मूसली मधुमेह, अस्थमा सहित अनेक प्रसूति रोगों में दवा की तरह काम आती है। यूनानी एवं होम्योपैथी में भी इसका महत्व स्वीकारा गया है।
संभावनाएं कम नहीं, क्योंकि झाड़ोल में है विशेष प्रजाति का खजाना
पन्द्रह साल पहले तक यह पौधा दक्षिणी राजस्थान में चित्तौडगढ़़-प्रतापगढ़ क्षेत्र के सीतामाता सहित झाड़ोल स्थित फुलवारी की नाल वन्यजीव अभयारण्य के वन क्षेत्र में भरपूर था। यहां के स्थानीय आदिवासी खासकर काथौड़ी समुदाय के लोग इसके औषधीय महत्व की अच्छी जानकारी रखते हैं। इसलिए इसे जंगल से इक_ा कर स्थानीय बाजार में बेचते थे।
आमजन में इसकी जानकारी की कमी और रक्षाबंधन से पहले इसे निकाले जाने के सामाजिक प्रतिबंध के कारण मूसली का ज्यादा प्रचार नहीं हो पाया। सोच बदलने के साथ सामाजिक प्रतिबंध खत्म हुआ और आमजन भी इसके प्रति जागरूक होने लगे तो जंगलों से इसकी खुदाई पकने से पहले ही होना शुरू हो गई।
ऐसे में एक समय यह लुप्त होने के कगार पर आ गई थी। आयुर्वेद विशेषज्ञ बताते हैं कि विश्व में सफेद मूसली की 20 से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें से दक्षिणी अफीका में 90 प्रतिशत व भारत में 15 प्रजातियां हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा उपयोगी व औषधीय गुणों वाली मूसली केवल झाड़ोल क्षेत्र में पाई जाती है। यही कारण है कि जंगलों से लगभग गायब हो चुकी मूसली की व्यावसायिक खेती सबसे पहले वर्ष 2001 कोल्यारी में शुरू हुई। इस साल 3500 किसानों ने इसकी खेती की और 13 करोड़ रुपए से ज्यादा कीमत की पैदावार ले ली है। हालांकि क्षेत्र के किसान अभी फसल निकाल रहे हैं, लेकिन हर किसान ने औसत 15 किलो मूसली की बिजाई की।
ऐसे में इसकी पदावार कम से कम बीज का 8 गुणा यानी 120 किलोग्राम गीली मूसली के रूप में मिल रहा है। सुखाने पर 20 से 25 प्रतिशत सूखा माल तैयार हो रहा है। ऐसे में हर किसान को 22 किलो के आसपास सूखी मूसली मिल रही है। इसका मौजूदा बाजार भाव 1600 सौ रुपए प्रति किलो है, जबकि बोनस के रूप में उत्पादन का 20 प्रतिशत (24 किलो) मूसली का छिलका किसान के पास बीज के रूप में सुरक्षित है।
जरूरत : प्लेटफॉर्म, जहां उपज बेच सकें किसान
सफेद मूसली के उत्पादक किसान अपने स्तर पर यह खेती सीख, कर और बढ़ रहे हैं। खासी संभावनाएं होने के बावजूद सभी किसान इसे नहीं अपना पा रहे, क्योंकि उपज बेचने के लिए प्लेटफॉर्म ही नहीं है। सरकार झाड़ोल क्षेत्र को मूसली हब के रूप में विकसित करने के लिए विशेष योजना बनाए तो कोई शक नहीं कि उपज का आंकड़ा अरब तक चला जाए।
Published on:
06 Nov 2017 11:16 am
बड़ी खबरें
View Allउदयपुर
राजस्थान न्यूज़
ट्रेंडिंग
