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उज्जैन.अपनी अनूठी परंपराओं के चलते सदियों से जिज्ञासा का विषय बना नाथ संप्रदाय सिंहस्थ में लोगों की सेवा से दिल जीत रहा है। इस संप्रदाय की खास बात यह है कि किसी भी प्रकार के दिखावे को यहां अनुचित माना जाता है। इसी विशेषता की वजह से इनकी ज्यादातर बातें राज ही रहती हैं। दीपेश तिवारी की रिपोर्ट...
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नाथ संप्रदाय के गुरु योगी रामनाथ जी कहते हैं कि सिंहस्थ ही नहीं किसी भी जगह अगर आप मानव सेवा में लगे हैं तो इस बात का प्रचार मत करिए। उज्जैन में भर्तृहरि की गुफा में इस संप्रदाय के कई योगियों का वास है, कहा जाता है यहीं राजा भर्तृहरि ने नाथ संप्रदाय के गुरु गोरक्षनाथ से शिष्यत्व लेने के बाद तपस्या की थी।
विशेष कर्ण छेदन प्रथा
इस संप्रदाय में कर्ण छेदन की प्रथा प्रचलित है। इनके अनुसार कर्ण छेदन को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है। इस दौरान कान मध्य से फाड़े जाते हैं। कान फाड़े जाने के बाद मुद्रा पहनी जाती है। यह गोल छल्ला मिट्टी का होता है जिसके बाद हाथी के दांत अथवा हिरण के सींग से बना कुंडल कान में पहनाया जाता है। यहां बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है। गले में काली ऊन की 'सिलेÓ और सींग की नादी पहनते हैं। इन दोनों को सींगी सेली कहते हैं।
यह अवधूत संप्रदाय है। अवधूत का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित"। नाथ पंथ में दीक्षा के दौरान सबसे पहले योगी (दीक्षा लेने वाला) का मुंडन कराया जाता है, इसके बाद गुरु चोटी काटते हैं। इन संस्कारों के साथ ही योगीे का नाम, कर्म, गौत्र आदि सब बदल जाता है। जो योगी शांत हो जाता है, उसके शरीर को आसन लगवाकर चीनी में दबा दिया जाता है, फिर ऊपर से मिट्टी डाल कर समाधि बना दी जाती है। इसके बाद उपदेशी गुरु उस योगी का पुतला बनाकर इसे समधि के अंदर रख दिया जाता है।