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#Once upon a time-काशी का यह अद्भुत मंदिर जिसकी स्थापना खुद भगवान विश्वनाथ ने की थी

-इस मंदिर में विराजते हैं देव गुरु बृहस्पति-काशी में ही मिली बृहस्पति को देवों का देव होने की मान्यता-एक ब्राह्मण की शिव स्तुति सुन कर महादेव ने की थी शिवलिंग की स्थापना

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गुर बृहस्पति देव का शिवलिंग

गुर बृहस्पति देव का शिवलिंग

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी

वाराणसी. वैसे तो श्री काशी विश्वनाथ की नगरी में देवी-देवताओं के अनेक विग्रह हैं। अनेक मंदिर हैं। यही एक ऐसी देव भूमि है जहां निवास करना देवता भी चाहते रहे। लेकिन इसके लिए हर किसी को बाबा विश्वनाथ की आराधना करनी पड़ी। कठोर तपस्या करनी पड़ी। इसी कड़ी में देवों के देव गुरु बृहस्पति भी यहां आए। उन्हें भी आदि देव भोले नाथ ने ही स्थान दिया।

बता दें कि वैसे तो काशी में गुरु बृहस्पति का एक मंदिर डेढसी पुल और दशाश्वमेंध घाट जाने के मार्ग पर भी स्थित है। यह बहुत ऊंचाई पर है। यहां हर बृहस्पतिवार को भक्तों की भीड़ लगती है। लेकिन इस काशी में बृहस्पति देव का एक अन्य मंदिर है जिसे प्राचीन बृहस्पति देव मंदिर की मान्यता प्राप्त है। यह मंदिर है संकठा गली में मां संकठा के मंदिर के पीछे और आत्म विशेश्वर मंदिर के ठीक सामने। वो आत्म विशेश्वर जहां के बारे में कहा जाता है कि वहां बाबा विश्वनाथ की आत्मा निवास करती है।

इसी आत्म विशेश्वर मंदिर के ठीक सामने है गुरु बृहस्पति देव का मंदिर। इस मंदिर के पुजारी बताते हैं कि इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण के काशी खंड के प्रथम भाग में मिलता है। इस प्रथम खंड के प्रथम भाग में शनि मंगल बृहस्पति की कथा है। वह बताते हैं कि उस कथा के अनुसार प्राचीन काल में आंगिरा ऋषि के पुत्र आंगिरश ने यही इसी स्थल पर शिवलिंग की स्थापना कर वृहद तप किया। निःस्वार्थ, निस्कपट तप के बाद उन्होंने शिव स्तुति की। अंगिरश के तप और तप के बाद की गई शिव स्तुति सुन कर नाथों के नाथ विश्वनाथ यहीं प्रकट हुए। भगवान श्री विश्वनाथ अंगिरश पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें समूचा ब्रह्मांड ही सौपना चाहते थे लेकिन अंगिरश के मन के भावों को उन्होंने समझा। अंगिरश को ब्रह्मांड नहीं बल्कि केवल काशी और काशी में भी भगवन् विश्वनाथ चाहिए था।

ऐसे जान कर बाबा विश्वनाथ ने 33करोड़ देवता 48 हजार ऋषियों आ आह्वान किया। इसी स्थान पर पट्टाभिषेक किया गया। पट्टाभिषेक के बाद भोले नाथ ने ब्रह्मा को आदेश कि आज से सभी ग्रहों में बृहस्पति प्रमुख नाम दिया जाए। यह देवों के देव कहलाएंगे। उसके बाद श्री विश्वनाथ ने सभी देवताओं और ऋषियों को यथा स्थान जाने का निर्देश दिया और खुद उसी शिवलिंग में समाहित हो गए जिसकी स्थापना कर अंगिरश ने तपस्या की थी। श्री विश्वनाथ ने अंगिरश से कहा भी कि आज से इस शिवलिंग में मैं सदा विराजमान रहूंगा। तभी से यह प्राचीन गुरु बृहस्पति देव का यह मंदिर यहां विराजमान है।

पुजारी ने बताया कि इस मंदिर के बाईं तरफ वह शिव स्तुति भी शिलापट्ट पर अंकित है जिसका पाठ अंगिरश ने किया। बताया कि इस शिवस्तुति के वाचन से हर भक्त की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। उन्होंने बताया कि गीता में भी इस गुरु बृहस्पति के मंदिर का उल्लेख मिलता है जब भगवान माता पार्वती को शिव के बारे में बताते हैं।

इस मंदिर में गुरु बृहस्पति के दर्शन-पूजन के लिए हर गुरुवार को भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। यहां आकर श्रद्धा भाव से जो भी पूजन करता है उसकी सारी मनोकामना पूर्ण होती है। उसे धन, मान-सम्मान, यश, विद्या-बुद्धि सब कुछ हासिल होता है।