
देव दीपावली पर जगमग काशी के गंगा घाट
डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी
वाराणसी. धर्म नगरी काशी जहां हर दिन एक खास पर्व होता है। हर महीना अपने आप में कुछ विशेष समेटे होता है। यहां सावन में जहां कण-कण की आराधना होती है तो भादो प्रथमेश श्री गणेश और श्री कृष्ण का महीना है। आश्विन व चैत्र मास में देवी भगवती पूजी जाती हैं। कार्तिक मास विष्णु को समर्पित है। यानी लगभग हर महीना किसी न किसी देवी देवता को समर्पित है। लेकिन कार्तिक मास तो शास्त्रों व पुराणों में भी सर्वश्रेष्ठ मास माना गया है। उस पर कार्तिक पूर्णिमा वाह!, उत्तर वाहिनी गंगा के अर्द्ध चंद्राकार घाट। मां भागीरथी के सुरम्य तट पर प्रस्तर सोपानों पर करीने से सजे मिट्टी के दीये और शाम के धुंधलके में उन दीयों की टिमटिमाती रोशनी, वह अद्भुत व अलौकिक दृ्श्य जो हर किसी के मन को भा जाए। दिल में सदा सदा के लिए बस जाए। नीचे कल-कल बहती मां गंगा की जलधार और और उन धाराओं में अठखेलियां करती दीपों की रोशनी, मानों सच में धरती पर सितारों का मिलन हो रहा हो। यूं तो दुनिया भर में सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-अवध की चर्चा होती है, लेकिन कार्तिक पूर्णिमा की वह शाम जो दृश्य काशी के घाटों पर मिलेगा वह इस धरती पर अन्यत्र नहीं। ऐसी अलौकिक छटा को निहारने के लिए ही तो पहुंचते हैं देश विदेश से लाखों सैलानी है। वह कार्तिक पूर्णिमा अब महज दो दिन दूर है। बस मंगलवार की शाम एक साथ जब काशी के 84 घाटों के प्रस्तर सोपानों पर एक साथ दीपक रोशन होंगे तो वास्तव में आंखें चौधिया जाएंगी। उस खूबसूरती के वर्णन के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। बस वो भावनाओं के समंदर में समा जाने वाला दृश्य होता है। तो अब बस इंतजार है 12 नवंबर की उस शाम का जब होगा सितारों का मिलन।
सर्वश्रेष्ठ मास कार्तिक मास
जानकार बताते हैं कि कार्तिक मास सबसे उत्तम मास है। पूरे महीने भर गंगा स्नान और भगवान विष्णु और विष्णु प्रिया की आराधना होती है। मां लक्ष्मी की आराधना का पर्व भी इसी पवित्र महीने में आता है। चातुर्मास के बाद इसी महीने में भगवान विष्णु योग निद्रा से जागृत होते हैं। भगवान विष्णु और माता तुलसी का विवाह होता है इसी महीने में। उससे पूर्व सूर्य षष्ठी का पर्व इसी महीने मनाया जाता है। इतना ही नहीं यही वह महीना है जब यह काशी गुरुनानक देव के प्रकाशोत्सव से जगमग होती है। यानी एक साथ कितने पर्व है इस महीने उसकी गिनती नहीं। ऐसे में इसका समापन तो भव्य तरीके से होना ही चाहिए। सो कार्तिक पूर्णिमा को हम सभी को मिलता है वो अवसर जब हम देवताओं के साथ खुशियां बांटते हैं और देव दीपावली मनाते हैं।
देव दीपावली की कथाएं
1- इस देव दीपावली के बारे में जो कथाएं प्रचलित हैं उनके अनुसार भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध करके देवताओं को स्वर्ग लोक वापस दिला दिया था। लेकिन तारकासुर के वध से उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण लिया। इन्होंने ब्रह्माजी की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न कर लिया और उनसे तीन नगर मांगे और कहा कि जब ये तीनों नगर अभिजीत नक्षत्र में एक साथ आ जाएं तब असंभव रथ, असंभव बाण से बिना क्रोध किए हुए कोई व्यक्ति ही उनका वध कर पाए। इस वरदान को पाकर त्रिपुरासुर खुद को अमर समझने लगे।
त्रिपुरासुर ने देवताओं को परेशान और अत्याचार करना शुरू कर दिया और उन्हें स्वर्ग लोक से बाहर निकाल दिया। सभी देवता त्रिपुरासुर से परेशान होकर बचने के लिए भगवान शिव की शरण में पहुंचे। देवताओं का कष्ट दूर करने के लिए भगवान शिव स्वयं त्रिपुरासुर का वध करने पहुंचे और उसका अंत कर दिया। भगवान शिव जी ने जिस दिन इस राक्षस का वध किया उस दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा थी। देवताओं ने त्रिपुरासुर के वध पर खुशी जाहिर करते हुए शिव की नगरी काशी में दीप दान किया। कहते हैं तभी से काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव-दिवाली मनाने की परंपरा चली आ रही है।
2- एक अन्य कथा के अनुसार त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से लौटा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी। उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना का क्रम प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना आरंभ किया। सारी सृष्टि डांवाडोल हो उठी। हर ओर कोहराम मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की पूजा की। महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। मान्यता है कि तब से ही देव दीपावली मनाने की शुरुआत हुई।
और तब मिली भव्यता
वरिष्ठ पत्रकार और बनारसियत की असल पहचान, बनारसियत को जीने वाले अमिताभ भट्टाचार्य ने पत्रिका से बातचीत में कहा कि काशी में देव दीपावली का इतिहास पूछना वैसे ही जैसे शिव की नगरी में महा शिवरात्रि का इतिहास जानना है। वह कहते हैं कि प्राचीन काल में काशी के घर-घर में देव दीपावली मनाई जाती रही। लोगों घरों में दीपक जलाते थे, सजाते थे, सरोवरों और कुंडों को सजाने की परंपरा भी रही। गंगा तट पर भी भागीरथी के भक्त दीप दान करते रहे। लेकिन गंगा तट पर भव्य देवदीपावली की शुरूआत सबसे पहले पंचगंगा घाट पर 1986 में हुई। इस मौके पर पूर्व काशिराज डॉ विभूति नारायण सिंह की उपस्थिति ने इस मौके पर चार चांद लगा दिया। वजह साफ है कि काशी के जितने भी पर्व हैं उन सभी में पूर्व काशिराज की मौजूदगी का अलग ही मायने होता है। इससे देव दीपावली भला कैसे अछूती रह जाती। यह परंपरार आज भी कायम है, अब कुंवर अनंत नारायण देव दीपावली पर पंचगंगा घाट जरूर आते हैं।
इसके पश्चात 1992 में दशाश्वमेध घाट पर देव दीपावली को भव्य रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई जिसके बाद धीर-धीरे काशी के सभी 84 घाटों पर असंख्य दीप जलने लगे। अब तो गंगा तट पर कार्तिक पूर्णिमा की शाम कितने दीपक जलते है, इसका अनुमान लगाना और उसकी संख्या घोषित करना संभव नहीं है। गंगा घाट ही क्यों काशी के हर तालाब, कुंड, सरोवर, पोखरों पर जो अनुपम व मनोहारी दृश्य देखने को मिलता है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
यहां किया जाता है शहीदों को नमन
घाटों पर शहीदों को भी याद किया जाता है। यह गंगा माता की प्रार्थना करने और उनकी आरती करने से होता है। यह 'गंगा सेवा निधि' द्वारा आयोजित किया जाता है जब दशाश्वमेघ घाट पर अमर जवान ज्योति पर पुष्पांजलि रखी जाती है और पुलिस अधिकारियों द्वारा राजेंद्र प्रसाद घाट पर, और तीन सशस्त्र बलों के सदस्यों को भी इस घटना को चिह्नित करने के लिए, देशभक्ति के गाने भी गाए जाते हैं।
Updated on:
13 Nov 2019 12:58 pm
Published on:
10 Nov 2019 01:10 pm
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