
जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी
वाराणसी. नेहरु भारतीय स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन के गांधी युग की उपज थे। गांधी ने ही तराश कर नेहरू जैसा महानायक गढ़ा। ऐसा कम ही होता है कि एक युगपुरुष दूसरा युगपुरुष पैदा करे। कबीर दूसरा कबीर भले न गढ़ सके हों, पर एक महानायक गांधी ने दूसरा महानायक नेहरू गढ़ा था।
लखनऊ कांग्रेस में 1916 में पहुंचे गांधी से वहां गंगा प्रसाद धर्मशाला में नेहरू की पहली मुलाकात हुई थी। इसी के साथ आधुनिक भारत निर्माण की दो पीढ़ियों के महानायकों की ऐसी धुरी बनी, जिस पर आगे चल कर कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन की गति व दिशा निर्भर रही। गांधी सरीखे पारस ने नेहरू को सोने जैसी चमक दी।
गांधी-नेहरू का मेल दक्षिणपंथी इतिहासविदों के लिये अपचकारी रहा
विज्ञानवादी मानववाद के प्रति अदम्य उत्साह से लैस नेहरू की प्रार्थना, सत्याग्रह, आत्मा की आवाज और खादी एवं चरखे से लैस गांधी के साथ अटूट लंबी पाली का विलक्षण तालमेल इतिहास का ऐसा रोचक रहस्य है, जिसके उत्तर इतिहासकार तलाशते रहे हैं और तलाशते रहेंगे। इसका सटीक उत्तर वे भले न तलाश सकें, लेकिन आधुनिक भारत के इतिहास में इसके गहरे और दूरगामी प्रभाव को वे नकार नहीं पाते। गांधी-नेहरू का यह तालमेल वामपंथी इतिहासकारों के लिये हैरत का विषय रहा है, तो दक्षिणपंथी इतिहासविदों के लिये अपचकारी।
नेहरू को गांधी का त्याग अस्वीकार्य था
वस्तुत: एक संगम जैसे इस विलक्षण तालमेल ने सही अर्थ में कांग्रेस संस्कृति को आकार और उत्कर्ष प्रदान किया, जिसे भारत के जनमानस ने स्वीकार किया। इससे अलग चिन्तन धारायें राष्ट्रीय मुख्य धारा से कट गईं और हाशिये की ओर खिसकने के लिये बाध्य हुईं। नेहरू ने कांग्रेस विचारिकी एवं दार्शनिकता में राष्ट्रवाद, लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के राष्ट्रीय आन्दोलन में अर्जित आदर्शों के साथ समाजवादी रुझान वाले लोककल्याणकारी राज्य के चिन्तन के चौथे सैद्धांतिक पाये की स्थापना का नेतृत्व किया। उससे गांधी की जाहिर असहमतियां थीं। इसके बावजूद गांधी-नेहरू धुरी अटूट रही और किसी भी मोड़ पर नेहरू को गांधी का त्याग अस्वीकार्य था। उनकी सुस्पष्ट धारणा थी कि गांधी के बिना भारत में साम्राज्यवाद के विरुद्ध किसी सार्थक संघर्ष की तो कल्पना भी नहीं हो सकती। अत: स्पष्टत: नेहरू के साम्राज्यवाद विरोध में, समाजवाद से ज्यादा राष्ट्रवाद का पुट था। इस भाव वितान ने कांग्रेस संस्कृति के चिन्तन प्रवाह में राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी रुझान वाले लोककल्याणकारी राज्य के सैद्धांतिक चौखम्बे को भारतीय राष्ट्रनिर्माण वैचारिकी की एक मुकम्मल जैविक संरचना बना दिया।
अकेला उदाहरण है जिसमें बेटे के विचारों ने प्रभावित किया पिता को
गांधी के प्रभावों ने नेहरू को स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अग्रणी लोकप्रिय सेनानी बनाया। एक धनाढ्य रईस परिवार में जन्मे और पले जवाहर लाल के पिता जो चिन्तायें लेकर गांधी के पास जाते थे, वे बेटे के थर्ड क्लास में रेल यात्रा करने या अवध के किसान आन्दोलनों में गांवों की धूल फांकने या सेवा दल कैंप्स में भंडार के बर्तन मांजने से लेकर पूरी तरह चर्खा और खादी में रम जाने आदि को ही लेकर होती थीं। कभी उन्हें कैंप में बर्तन मांजते देखकर बापू के पास पहुंचे रईस पिता मोती लाल जी ने बापू को ब्लैंक चेक पकड़ाते हुये कहा कि कैंप में दिक्कतें हैं तो समुचित बन्दोबस्त के लिये उचित रकम भर कर आप निकलवा लें। बापू ने रकम के कालम में लिखा जवाहर लाल। मोती लाल जी पानी पानी हुये और क्षमा मांगी।
10 साल ब्रिटिश सत्ता की लौह सलाखों में काट दिए
उस समृद्ध रईस परिवार में हर संभव सुख व वैभव के भोग का विकल्प त्याग कर जवाहर लाल नेहरू ने भरी जवानी के महज 13 दिन कम, पूरे 10 साल ब्रिटिश सत्ता की लौह सलाख जेलों में काट दिये थे। उल्लेखनीय है कि गांधी जी के सभी आन्दोलनों में जेल जाता रहा कोई भी प्रमुख नेता 5 या 6 साल से अधिक जेल नहीं रहा था। जवाहर लाल पर पिता का कोई असर तो नहीं पड़ा, लेकिन पिता पर जवाहर लाल का भरपूर असर पड़ा। देखते देखते वैभव के प्रतीक आनन्द भवन परिसर की रईसी एवं शान शौकत का गांधीवादी अधिग्रहण हो गया। मोती लाल जी ने वकालत ही नहीं बंद की, जेल भी जाने लगे। विधायिका सभा छोड़ दी। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों से हटा लिये। घोड़े, गाड़ियां, कुत्ते व तमाम कीमती विदेशी सामान हटा दिये गये। विदेशी वस्त्रों की होली भी जलाई गई और नौकरों चाकरों की फौज बेहद घट गई। आनंद भवन परिसर में न केवल खादी का साम्राज्य पसर गया, बल्कि आने वाले दिनों में कांग्रेस एवं उसके आन्दोलनों का सूत्र संचालन केन्द्र बना वह अभिजात परिसर देखते देखते खादी पहने सत्याग्रहियों की सराय बन गया।
नगर पालिका से शुरू किया राजनीतिक जीवन
बेशक नेहरू आजादी के बाद विशालतम भारतीय लोकतंत्र के संस्थापक प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन अवध के किसान संघर्षों से सार्वजनिक जीवन यात्रा शुरू करने वाले उस नेहरू ने जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी राजनीतिक पाली की शुरुआत तो नगर पालिका चुनाव जीत कर की। आजादी के पूर्व तीन बार और आजादी के बाद तीन बार वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुये। आजादी पूर्व के प्रान्तीय चुनावों और आजादी के बाद के तीन आम चुनावों में वह कांग्रेस में सर्वाधिक मांग वाले शीर्ष स्टार प्रचारक लोकप्रिय नेता थे।
मोतीलाल नेहरू समिति के संवैधानिक प्रारूप का सुभाष बोस के साथ किया विरोध
सन् 1927 में साइमन कमीशन बना तो सर्वदलीय बैठक के बैठक के बाद जवाहर लाल नेहरू ने उसके बायकाट की घोषणा की। साथ ही कांग्रेस ने मोतीलाल नेहरू समिति का गठन किया, उस पर यह जिम्मेदारी दी गई कि वह भारत के लिये संवैधानिक प्रारूप सुझाये। उस समिति की रिपोर्ट जब 1928 की कलकत्ता कांग्रेस में आई, तो जवाहर लाल नेहरू एवं सुभाष चन्द्र बोस ने विरोध किया। विरोध की वज़ह यह थी कि प्रारूप उस समय तक कांग्रेस के घोषित आधिकारिक लक्ष्य 'स्वशासन' की मांग पर निर्भर था और युवा नेतृत्व को अब पूर्ण स्वतन्त्रता के नीचे कुछ स्वीकार नहीं था। गांधी के हस्तक्षेप के बाद रिपोर्ट एक साल में लागू करने के अल्टीमेटम के साथ स्वीकृत हुई। एक साल बाद 1929 की ऐतिहासिक लाहौर कांग्रेस पं.जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुई। रावी तट पर 31 दिसम्बर की आधी रात के बाद अल्टीमेटम अवधि पूरी होने पर उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प पारित किया। साथ ही 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का संकल्प भी लिया गया। उसके तहत 1930 से 1947 तक 26 जनवरी को कांग्रेस देशभर में स्वतंत्रता दिवस मनाती थी। यही कारण था कि नेहरू के परामर्श पर स्वतंत्रता के बाद उसे गणतंत्र दिवस का रूप दिया गया।
नागरिकों का मौलिक अधिकार चार्टर का प्रारूप नेहरू और सुभाष ने मिल कर बनाया था
1931 में सरदार पटेल की अध्यक्षता में हुई करांची कांग्रेस में नागरिकों का मौलिक अधिकार चार्टर पारित हुआ। उस प्रस्ताव का प्रारूप नेहरू एवं सुभाष ने मिलकर बनाया था, जिसे पेश किया गांधी ने। नेहरू कांग्रेस में समाजवादी जमात के भी स्वाभाविक अगुआ थे। वह 1934 के पटना कांफ्रेंस में जाते तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष बनते, लेकिन शायद गांधी से अलग राह पर जाना उन्हें गंवारा न था। इस तरह समाजवाद के साथ जहां राष्ट्रवाद में उनकी साफ प्रतिबद्धता थी, वहीं वह एई समर्पित लोकतंत्रवादी थे।
मन, चित्त और आत्मा के संस्कार से मुकम्मल लोकतंत्रवादी थे
नेहरू मन, चित्त और आत्मा के संस्कार से मुकम्मल लोकतंत्रवादी थे। उनके लिये लोकतंत्र का विश्वास राजनीतिक प्रणाली मात्र नहीं, निजी एवं राष्ट्रीय जीवन की शैली था। एक व्यक्ति के भी उचित विरोध को भी महत्ता देने एवं उसे स्वीकारने का संस्कार उनमें था। आलोचना के हक और समादर के साथ ही, अपनी आलोचना सुनने का भरपूर धैर्य भी उनमें था। आलोचना करने वाला न मिले तो आत्मालोचना की सामर्थ्य एवं हिम्मत भी थी। अपनी सरकार की आलोचनायें छद्भ नाम से अखबार में खुद लिखने वाले राजनीतिज्ञ थे नेहरू। उन्होंने कहा था कि मैं ऐसी सरकार में विश्वास करता हूं, जिसके सशक्त आलोचक हों और जिसका मुकाबला करने के लिए सशक्त विरोधी दल हों। वह राजनीतिक लोकतंत्र के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की दिशा में ठोस प्रगति को भी महत्वपूर्ण मानते थे। वह धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र की कसौटी मानते थे। उनका विश्वास था कि राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता एक साथ नहीं चल सकते और धर्मनिरपेक्षता के बिना तो लोकतंत्र की कल्पना संभव नहीं। उनकी धर्मनिरपेक्ष दृष्टि का समूचा मर्म संविधान में पिरोई गई नागरिकों के मूल अधिकारों की अवधारणा एवं संरचना में समाया था।
राजनेता संग लेखक व इतिहासविद भी थे
जवाहरलाल नेहरू न केवल उच्च कोटि के राजनेता थे, बल्कि कालजयी महत्व रखने वाले ग्रंथों के रचनाकार यशस्वी लेखक एवं इतिहासविद भी थे। 'भारत की खोज', 'विश्व इतिहास की झलक' आदि सहित प्रशस्त ग्रंथ उन्होंने जेलों में रह कर लिखे। सार्वजनिक जीवन में लंबी पाली खेलने वालों की जड़ें हमेशा इतिहास की गहरी समझ से जुड़ी रही हैं। जवाहर लाल नेहरू यद्यपि विज्ञान के विद्यार्थी थे, लेकिन इतिहास के अध्येता और लेखक के रूप में उनका स्थापित यश बेमिसाल है।
गांधी के नेतृत्व की अगस्त क्रांति के साथ भी नेहरू का गहरा समर्पण और तादात्म्य था
सन् 1942 में गांधी के नेतृत्व की अगस्त क्रांति के साथ भी नेहरू का गहरा समर्पण और तादात्म्य था। स्वतंत्रता के उस निर्णायक संघर्ष के बाद अर्जित आजादी के संहिताकरण द्वारा विश्व के विशालतम भारतीय लोकतंत्र की स्थापना एवं सुदृढ़ विकास को नेतृत्व प्रदान करने वाले उसके संस्थापक प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू की भूमिका महनीय थी। साम्यवादियों और समाजवादियों द्वारा संविधान सभा के बायकाट के बावजूद, उन्होंने सभी राजनीतिक घटकों को उस युगदायित्व से यथासंभव और यथासामर्थ्य जोड़ा। उन्होंने सांस्कृतिक बहुलवाद की नींव पर राष्ट्र की परिकल्पना और राष्ट्रनिर्माण के सुदृढ़ सिलसिले को आगे बढ़ाया। किसी खास धर्म व धर्म संस्कृति विशेष की पदपादशाही की सोच के विपरीत, भेदभावरहित एक समावेशी भारत की परिकल्पना को महत्ता देते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जीवन में हर व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने पर बल दिया।
लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, शैक्षणिक, औद्योगिक संस्थानों की मजबूत बुनियाद रखी
नेहरू ने भारत में महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, शैक्षणिक, औद्योगिक संस्थानों की मजबूत बुनियाद रखी। देश को उन सब संस्थानों पर गौरव रहा है। आधुनिक भारत निर्माण में उन सबकी भूमिका सारी दुनिया में सराही जाती रही है। आज देश में ऐसे हर गौरवशाली संस्थान या प्रतिष्ठान के पीछे कोई व्यक्ति सबसे अधिक है, तो वह बेशक नेहरू हैं। उन्होंने एक ओर बड़े बुनियादी उद्योग एवं उद्यम संस्थान खड़े किये, तो दूसरी ओर लघु, कुटीर व हस्त उद्यमों तथा सामुदायिक विकास एवं सहकारी आन्दोलन के कार्यक्रमों को भी शुरू किया और बढ़ाया। सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को समान महत्ता एवं प्रोत्साहन के साथ देश को मिश्रित अर्थ व्यवस्था के मध्यमार्ग पर लेकर चले। इस्पात रहित भारत में भिलाई, बोकारो, राउरकेला सदृश्य प्रतिष्ठान खड़े कर और आईआईटी, एम्स, आईआईएम सरीखे मानव संसाधन निर्माण के शैक्षिक संस्थान खड़े कर, सूई तक न बना पाने वाले देश को त्वरित औद्योगिक विकास की राह पर दौड़ाने की युगान्तकारी पहल की।
विकास में आम लोगों की भागीदारी के पक्षधर थे
नियोजित विकास के साथ ही, वह विकास में आम लोगों की भागीदारी के पक्षधर थे। वैदिक काल से गांधी के विश्वासों तक चली आई भारत की परंपरागत पंचायत प्रणाली को सामंती प्रभाव की ग्रामीण सामाजिक संरचना बदले बिना संविधान निर्माण के वक्त तवज्जो नहीं मिल सकी थी। फिर भी नेहरू ने ज्यादा प्रतीक्षा नहीं की। राजशाही के उपरांत जमींदारी के सामंती ढांचे को गिराने के बाद भारतीय समाज एवं संस्कृति की परम्परा में रची बसी पंचायत प्रणाली को, पंचायतीराज के ढांचे में ढाल कर देश के आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र के ढांचे में पिरोया। राजस्थान से उनके द्वारा उद्घाटित पंचायतीराज प्रणाली देखते देखते पूरे देश में लोकतंत्र की धरातलीय इकाईयों के साथ छा गई। विदेश नीति के मोर्चे पर भी नेहरू की बनाई लीक का भारतीय विदेश नीति में स्थायी महत्व बना रहा।
नेहरू भारत में लोकप्रिय नेतृत्व की मिसाल थे
नेहरू भारत में लोकप्रिय नेतृत्व की मिसाल थे, जिन्हें हिन्दुस्तान की आवाम की आंखों का नूर कहा जाता था। आज नेहरू के कृतित्व और उनके स्थापित यश पर कीचड़ उछालने का सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है, लेकिन नेहरू का यश देश और दुनिया में अक्षय बना हुआ है। उन पर झूठ के आक्षेपों की बौछार टिक नहीं पाती है। लोकतंत्र में असहमतियों एवं आलोचनाओं की पूरी गुंजाइश होती है और नेहरू उसके कायल थे, लेकिन दुर्भावना जनित दुष्प्रचार से इतिहास के सच को देर तक ढंकने के मंसूबे टिकाऊ नहीं हो सकते।
ये कहना है राजीव गांधी स्टडी सर्कल के राष्ट्रीय सह समन्वयक, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के राजनीति शास्त्र के सेवानिवृत्त प्रो सतीश कुमार का।
नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं।
Published on:
12 Nov 2019 04:28 pm
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