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70 साल बाद आजाद हुए हैं यूपी के साढ़े पांच लाख आदिवासी

70 साल बाद आजाद हुए हैं यूपी के साढ़े पांच लाख आदिवासी

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Awesh Tiwary

Jan 06, 2017

up election and tribals

up election and tribals

-आवेश तिवारी
सोनभद्र से लौटकर।15 अगस्त 1947 को देश भले आजाद हुआ है लेकिन उत्तर प्रदेश के आदिवासी 4 जनवरी 2017 को आजाद हुए हैं जब चुनाव आयोग ने यूपी समेत देश के पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा की। आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब जनजातीय बहुल यूपी के सोनभद्र जिले के गोंड़ , धुरिया , नायक , ओझा , पठारी , राजगोंड़ , खरवार , खैरवार , परहिया , बैगा , पंखा , पनिका , अगरिया , चेरो , भुईया , भुनिया न केवल मताधिकार का प्रयोग करेंगे बल्कि अपने लिए आरक्षित सीटों से अपनी उम्मीदवारी भी ठोकेंगे।साढ़े पांच लाख की आबादी के बावजूद यूपी में जनजातियों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं थी। निर्वाचन आयोग द्वारा यूपी की दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटों को जनजातियों के लिए आरक्षित घोषित किये जाने के बाद से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे सोनभद्र में उत्सव सरीखा माहौल है ,जगह जगह मिट्ठाईया बांटी जा रही है तो करमा गाये जा रहे हैं। गौरतलब है कि यूपी में छह वर्ष पूर्व हुए परिसीमन के बाद यह दो विधानसभाएं अस्तित्व में आई है हांलाकि 2012 मे यह सीटें सामान्य थी।समाजवादी पार्टी की पूर्व सरकार में मंत्री रहे विजय सिंह गोंड जो कि दुद्धी विधानसभा क्षेत्र में जनजातियों के नेता रहे हैं चुनाव आयोग के फैसले को ऐतिहासिल बताते हुए कहते हैं कि न्यायालय का स्पष्ट आदेश था लेकिन फिर भी सीटों को आरक्षित करने में हिलाहवाली बरती जा रही थी ,अब सही मायनों में सोनभद्र के आदिवासी आजाद हैं।

अजीबोगरीब आरक्षण ,अजीबो गरीब चुनाव
केंद्र सरकार की हिला हवाली और न्यायिक प्रक्रिया की ढुलमूल नीति ने उत्तर प्रदेश के जनजातियों को उनके मौलिक अधिकारों से हमेशा वंचित रखा है वो या तो मुकदमा लड़ते हैं या टैक्स देते हैं। शायद ही सोनभद्र का कोई ऐसा आदिवासी हो जिसके खिलाफ जंगल विभाग ने मुकदमा कायम न कर रखा हो लेकिन मौजूदा कवायद के बाद लगता है अब हालत बदलेंगे ,जिले के आदिवासी इस बार विधानसभा में भी प्रतिनिधित्व करेंगे ,इसके अलावा नगर और ग्राम पंचायतों में भी इनका वर्चस्व होगा। यह छोटा मजाक नहीं था कि पूर्व में जिले में दो विधानसभा सीटें थी और दोनों ही अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित थी ,हालत इस हद तक खराब थे कि केवल लोकसभा और विधानसभा में ही नहीं जिन गाँवों में जनजातियों की जनसँख्या 99 फीसदी थी और 1 फीसदी घर अनुसूचित जाति के लोगों के थे वहां पर ग्राम प्रधान या तो अनुसूचित जाति का हुआ करता था । स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य के पदों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रर्याप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली रह जाती थीं।

आदिवासियों से बार बार मजाक करती रही सरकार
यूपी में सोनभद्र ,मिर्जापुर और चंदौली जनजाति बहुल जनपद है 2004 से पहले जब प्रदेश के आदिवासियों को जनजाति का दर्जा नहीं दिया गया था वो इन्ही सीटों पर चुनाव लड़ा करते थे ,जो सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित रहती हैं । बेहद लम्बी लडाई लड़ने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में यहाँ की नौ आदिवासी जातियों को जिनमे गोड़ ,खरवार ,बैगा ,चेरो .पनिका ,अगरिया ,मांझी ,पठारी और पहरिया शामिल हैं अनुसूचित जनजाति की मान्यता दे दी गयी मगर अफ़सोस सीटों पर आरक्षण व्यवस्था को ज्यों का त्यों रखा गया।नतीजा यहाँ हुआ कि मान्यता प्राप्त जनजातियाँ चुनाव लड़ने के अधिकार से ही वंचित हो गयी ,मजाक सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुआ सरकार ने धांगर ,बंसोर ,घसिया, कोल ,बैसवार समेत अन्य 15 आदिवासी जातियों को इस आरक्षण से अलग रखा गया ,जबकि इन्हें भी जनजातियों में शामिल करने की मांग आजादी के बाद से ही की जा रही थी .दूसरी तरफ जिन जातियों को मान्यता दी भी गयी उनमे भी जमीनी वास्तविकताओं की जानबूझ कर अनदेखी की गयी। पहरिया और पठारी सोनभद्र में नहीं के बाराबर हैं इन्हें भी जनजाति में शामिल कर लिया गया ,वहीँ गोंड और मांझी सोनभद्र में एक ही आदिवासी जातियां हैं पर इन्हें अलग अलग करके दो बार मान्यता दे दी गयी।चुनाव आयोग का मौजूदा निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2012 में दिए गए आदेश के क्रम में आया है ,यह आदिवासियों की बड़ी विजय है और इससे इस बेहद पिछले जिले की स्थिति बदलेगी यह तय है ।

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