डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी
वाराणसी. मां गंगा प्रदूषित हो रही हैं, उन्हें प्रदूषण मुक्त करने की जरूरत है, उसके लिए कार्ययोजना बनानी चाहिए, यह सोच पहली बार 70 के उत्तरार्द्ध में आई। उसके लिए सर्वे कराया गया, प्रारूप तैयार किया जाने लगा। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि गंगा भी प्रदूषित हो सकती हैं। लेकिन जब 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा स्वच्छता को लेकर पहल की। इसी काशी में राजेंद्र प्रसाद घाट पर उन्होंने गंगा कार्य योजना की आधारशिला रखी। तब लगा कि वास्तव में गंगा में जो कुछ भी प्रदूषण है वह भी जल्द दूर होगा। उस वक्त राजीव गांधी ने मां गंगा के प्रति एक कमिटमेंट दिखाया था। उनकी कुछ सोच थी, काश कि वह जिंदा रहते और अपनी सोच के आधार पर शुरू की गई योजना की मानीटरिंग कर पाते तो उम्मीद की जा सकती थी कि कुछ परिवर्तन दिखता। फिर भी उन्होंने कुछ पहल की, काम दिखना शुरू हुआ, भले ही ब्यूरोक्रेसी के मकड़जाल के चलते वह योजना भी उस स्तर पर कारगर नहीं हो पाई। उसके बाद 2014 में जब नई सरकार आई और केंद्र में पहली बार गंगा मंत्रालय बना तो लगा कि अब ऐसा कुछ होगा कि वास्तव में गंगा स्वच्छ होंगी, यह दूसरे प्रधानमंत्री का कमिटमेंट था, लेकिन यह कमिटमेंट केवल जुबानी ही रह गया, पिछले चार वर्षों में मुझे तो कुछ नहीं दिखता कि गंगा स्वच्छता के लिए कुछ हुआ है। यह कहना है गंगा स्वच्छता अभियान से बचपन से जुड़े, गंगा स्वच्छता के लिए ही निर्मित संकट मोचन फाउंडेशन के चेयर पर्सन और प्रमुख पर्यावरणविद संकट मोचन मंदिर के पूर्व महंत व संकट मोचन फाउंडेशन के फाउंडर चेयरपर्सन प्रो वीरभद्र मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र प्रो विश्वंभर नाथ मिश्र का। प्रो मिश्र ने 14 जून, गंगा कार्य योजना की शुरूआत के 32 साल पूरे होने पर पत्रिका संग विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश…
प्रश्न- पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा कार्ययोजना को शुरू करने के लिए बनारस ही क्यों चुना?
उत्तर- गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा 2525 किलोमीटर तक का सफर तय करती हैं। इस रास्ते में बनारस में करीब 5 से 6 किलोमीटर का स्ट्रेच मिलता है। यह बहुत महत्वपूर्ण स्थान है गंगा की पूरी यात्रा का। ऐसे में उनकी सोच रही होगी कि यह एक बड़ा प्लेटफार्म होगा रेस्ट ऑफ द रीवर के लिए। यहां से काम शुरू कर के वह एक उदाहरण पेश करना चाहते थे।
प्रश्न- 14 जून 1986 में गंगा कार्य योजना शुरू हुई तब से 14 जून 2018 के बीच क्या फर्क दिखता है?
उत्तर– तारीफ की जानी चाहिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कि उन्होंने तब गंगा स्वच्छता का बीड़ा उठाया जब गंगा काफी हद तक स्वच्छ थीं, एक तरह से प्रदूषण की शुरूआत थी। अगर वह सोच कारगर होती तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता कि गंगा को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। हालांकि गंगा कार्ययोजना को कहीं से सफल नहीं कहा जा सकता। कारण साफ है कि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की जो तकनीक अपनाई जानी चाहिए थी वह नहीं अपनाई गई। गंगा में जिस तरह से सीवेज का उत्सर्जन हो रहा है उसके लिए ये एसटीपी कारगर नहीं क्योंकि इससे फीकल क्लोरीफार्म बैक्टीरिया रिमूव नहीं होते। ऐसे में इसका कोई मतलब नहीं।
प्रश्न- तो क्या जिस गंगा कार्य योजना को राजीव गांधी ने लांच किया वह कारगर नहीं था?
उत्तर– किसी भी कार्य की शुरूआत में कुछ खामियां रह जाती हैं। वैसा ही गंगा कार्य योजना के साथ भी हुआ। गंगा कार्य योजना लांच होने के बाद दीनापुर में 102 एमएलडी क्षमता का शोधन संयंत्र लगा जबकि तब 150 एमएलडी सीवेज प्रतिदिन गंगा में गिरता था। उस वक्त भी न इंटरसेप्शन की मुकम्मल व्यवस्था हुई न डायवर्जन न ट्रीटमेंट की। इसके बाद भी 1993 में यह कह दिया गया कि गंगा कार्ययोजना का काम पूरा हो गया जबकि ऐसा नहीं था। मैं फिर कहता हूं कि राजीव गांधी ने 1986 में जो काम शुरू किया वह आगे भी जारी रहना चाहिए था, वह एक प्रधानमंत्री का कमिटमेंट था, लेकिन आगे की सरकारों ने उस पर उतना ध्यान नहीं दिया।
प्रश्न- 1986 के आसपास ही संकट मोचन फाउंडेशन के संस्थापक चेयरपर्सन स्व प्रो वीरभद्र मिश्र ने भी गंगा स्वच्छता के लिए एक प्लान बनाया था, वह गंगा कार्य योजना से कितना अलग था और उसका क्या हुआ?
उत्तर- संकट मोचन फाउंडेशन की ओर प्रो मिश्र ने जो प्लान तैयार किया था गंगा स्वच्छता के लिए वह कांपैक्ट प्लान था। अमेरिकी आधुनिक तकनीक पर आधारित था। हालांकि तब यह कहा गया कि वह बिल्कुल नया कांसेप्ट है। बावजूद इसके केंद्र सरकार ने फाउंडेशन से प्लान के तहत डीपीआर तैयार करने को कहा। डीपीआर आज भी केंद्र सरकार के पास है। उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वाराणसी के रमना में 35 एमएलडी क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने की इजाजत दी जिसकी कुल लागत 50 करोड़ रुपये थी। लेकिन वह सरकार चली गई तो नई सरकार ने उसे महंगा बता दिया। अब सुन रहे हैं कि वहीं रमना में ही मौजूदा सरकार 50 एमएलडी का एसटीपी लगाने जा रही है जिसकी लागत 150 कोरड़ रुपये है। यानी 50 करोड़ महंगा था और 150 करोड़ रुपये सस्ता है। इतना ही नहीं तत्कालीन राज्य सरकार ने गंगा स्वच्छता अभियान के तहत संकट मोचन फाउंडेशन को अपनी नोडल एजेंसी बनाया था। अब तो वह सरकार भी नहीं रही। राज्य सराकर के कार्य को कैसे भूला जा सकता है, तब बीमार थे प्रो वीरभद्र जी, यहीं कमिश्नरी सभागार में तत्काली लोकनिर्माण राज्य मंत्री ने बुलाया था प्रेजेंटेशन को, वह यही कह कर गए कि मेरा जीवन गंगा के लिए है, वहां से लौटे तो बीएचयू आईसीयू में भर्ती हुए फिर दुनिया को अलविदा कह दिया।
प्रश्न- 1986 के बाद 2014 में एक और प्रधानमंत्री ने अपना कमिटमेंट दिखाया, उसे किस रूप में लेते हैं?
उत्तर– राजीव गांधी के बाद जब नरेंद्र मोदी ने गंगा स्वच्छता के प्रति अपना कमिटमेंट दिखाया तो हम लोगों में उम्मीद बंधी थी उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही गंगा मंत्रालय का गठन किया। गंगा स्वच्छता के लिए बजट में प्रावधान किया गया। लेकिन जो मंत्री बनीं वह या तो गंगा को जानती नहीं थीं या जानन चाहती नहीं थी। गंगा स्वच्छता कार्यक्रम कोई जादू नहीं है जो 10-15 दिन में हो जाएगा। इसके लिए आधुनिकतम तकनीक पर आधारित प्लान चाहिए। ऐसा कुछ भी इन चार वर्षों में नई सरकार ने ऐसा कुछ भी तो नही किया। कहीं कुछ तो नहीं दिख रहा।
प्रश्न- शोर तो बहुत है कि काफी कुछ किया गया और काफी कुछ हो रहा है?
उत्तर– घाटों की सफाई को गंगा स्वच्छता अभियान से नहीं जोड़ा जा सकता। ठीक है घाटों की सफाई होनी चाहिए लेकिन प्राथमिकता गंगा हों। गंगा ही नहीं रहेंगी तो घाटों का क्या मतलब। आज हालत यह है कि गंगा में रोजाना 350 एमएलडी सीवेज गिराया जा रहा है। इसी तुलसी घाट पर आज से 10-15 साल पहले फीकल कोलीफार्म का अनुपात प्रति 100, 40,000 तो आज की तारीख में 80,000 हो गया है। गंगा में फ्लो रहा नहीं। सीवेज डिस्चार्ज बढ़ता जा रहा है। कही कोई कार्रवाई नहीं हुई।
प्रश्न- क्या उम्मीद करते हैं मौजूदा सरकार से?
उत्तर– इस सरकार से कोई उम्मीद नहीं रही अब जब चार वर्ष यूं हीं गवां दिए तो अब साल भर में क्या कर दिखाएंगे। इनसे कोई उम्मीद नहीं है। दरअसल ये लोग कुछ करना ही नहीं चाहते। प्रधानमंत्री ने कमिटमेंट दिखाया तो जरूर पर उसे क्रियान्वित नहीं कर पाए।