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श्रम की प्रतिष्ठा करती है काशी की संत परम्परा

काशी के संतों ने दिया सामाजिक विसंगतियों का निदान, आंखों देखी ही है जीवन का सार तत्व।

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Workshop on Kashi

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वाराणसी. देश में संतों ने अपने पदों में एक वैकल्पिक समाज की परिकल्पना की है। चाहे वह रविदास का "बेगमपुर" हो, कबीर का "अमरपुर" हो या फिर तुलसीदास का "रामराज्य" है। संतों का यह नक्षत्र मण्डल हमें सांसारिक आडम्बर से दूर ले जाता है। संत साहित्य में कहीं भी पोथी को महिमा नहीं है। उनके वाणी में सामाजिक संदर्भों के निहितार्थ बदलते रहते हैं। संतों ने आंखों की देखी को जीवन का मार्ग बताया है। समाज के यथास्थितिवाद व उत्तराधिकार के ढोई जा रही गठरी को हटाते हैं। यह कहना है प्रो सदानंद शाही का। वह मंगलवार को काशीकथा की ओर से काशी पर आयोजित कार्यशाला के पांचवें दिन विशेष व्य़ाख्यान दे रहे थे।

प्रो शाही ने "काशी की संत परम्परा" विषयक व्याख्यान देते हुए हुए कहा कि संत शब्द सत से बना है जिसका अर्थ है सत्य। संत वही है जो सत्य मार्ग पर चले। साधुता दो तरह की होती है। एक जिसमे श्रम से दूर परजीवीता होती है वहीं साधुता की दूसरी परम्परा ने श्रम को प्रतिष्ठा दी है। काशी की संत परम्परा श्रम को प्रतिष्ठित करने वाली रही है। वर्तमान में पर्यावरण की स्थिति पर व्याप्त चिंता को भी संत साहित्य में दर्शाते हुए कहा कि आज मनुष्य धरती पर स्वयं को सबसे सक्षम मानते हुए। पर्यावरण के दोहन को अपना अधिकार मान लिया है, जबकि संतों ने इसका निषेध किया है।

कार्यशाला के दूसरे सत्र में "मध्यकालीन काशी" विषय पर अपने विचार रखते हुए डॉ ताबिर कलाम ने कहा कि काशी का प्राचीन इतिहास में और पुरातात्विक उल्लेख प्राप्त होता है जिसम वैदिक साहित्य,महाजनपद काल है। लेकिन काशी के मध्यकालीन इतिहास का ज्यादा उल्लेख नही प्राप्त होता। मध्यकाल में काशी राजनीतिक केंद्र नही रहा बल्कि दिल्ली, जौनपुर, अवध,तथा कड़ा मानिकपुर केंद्र रहे।

मध्यकाल के काशी को जानने के लिए मुग़ल काल के साहित्य और सिक्कों तथा मौखिक आधार पर इतिहास को गढ़ना होता है। कुछ प्रमुख पुस्तकें जैसे तारिख-ए-सुबुक्तगीन, अलबरूनी के किताब-उल-हिन्द, और अबुल फजल के "अकबरमा" में बनारस के जिक्र मिलता है। इस तरह कहा जा सकता है की सालार मसूद गाज़ी जो महमूद गजनवी के साथ बनारस आया था, उस काल को मध्यकाल का प्रारम्भ मान सकते हैं। बनारस का ज्यादा सन्दर्भ अकबर के समय से मिलना प्रारम्भ होता है। एक और पुस्तक है तारीख-ए- बनारस है पर वह बहुत प्रामाणिक नहीं माना गया है। मुख्य स्त्रोत परवर्ती मुगल काल से अधिक प्राप्त होते हैं। जहां शाही फरमानों में बनारस के ज़िक्र हुआ है।

इस मौके पर डॉ विकास सिंह, अरविंद मिश्र, गोपेश पांडेय, बलराम यादव, पंडित दीपक तिवारी, अभिषेक यादव, उपेन्द्र दीक्षित, विनय कुमार सिंह, प्रज्ञा दुबे, डॉ ललित मोहन सोनी, रंजना गुप्ता, शालिनी सिंह आदि उपस्थित थे। अध्यक्षता प्रो एस एन उपाध्याय ने की जबकि संचालन डॉ सुजीत चौबे ने किया। डॉ अवधेश दीक्षित ने आभार जताया।