खरगोन. भगवान शिव के पवित्र श्रावण माह में शिवालयों में विभिन्न धार्मिक आयोजन हो रहे हैं। इसी क्रम में शहर के अधिष्ठाता सिद्धनाथ माहदेव मंदिर में भी श्रद्धालुओं को तांता लग रहा है। शहर के भावसार मोहल्ला स्थित मंदिर 375 वर्ष प्राचीन होने के साथ ही चमत्कारी माना जाता है। मंदिर के पुजारी हरीश गोस्वामी बताते हैं इस मंदिर की स्थापना साल 1651 में मल्लीवाल परिवार द्वारा हुई थी। मंदिर में जो शिवलिंग स्थापित है, वह एक सर्प की समाधि पर है। उनके अनुसार मल्लीवाल परिवार में ही एक महिला के गर्भ से चार बच्चों ने जन्म लिया था। जिनमें एक का जन्म सर्प योनि में हुआ था। परिवार ने उसका भी अपने बेटे की तरह पालन-पोषण किया। यहां तक की संपत्ति में हिस्सेदारी भी दी। जिसका नाम सिद्धू रखा गया। सिद्धू के हिस्से में जो जमीन आई, मृत्यु के बाद उनके हिस्से की जमीन में समाधि दी गई। बाद में इस समाधि पर शिवलिंग की स्थापना की गई। इसलिए मंदिर का नाम श्री सिद्धनाथ महादेव मंदिर नाम रखा गया।
रात्रि विश्राम करने आते हैं भगवान
मंदिर के पुजारी ने बताया कि जिस प्रकार ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में रोजाना शयन आरती के बाद पट बंद होने से पहले चौसर बिछाई जाती है। जब सुबह पट खुलते हैं तो चौसर बिखरी हुई नजर आती है। मान्यता है कि तीनों लोकों का भ्रमण करने के बाद रात के समय भगवान शिव और माता पार्वती इसी मंदिर में रात्रि विश्राम करते हैं। ठीक उसी तरह सिद्धनाथ महादेव मंदिर में भी भगवान चौसर खेलने आते हैं। रात 10 बजे चौसर बिछाने के बाद इस मंदिर के पट बंद होते हैं। सुबह 5 बजे पट खुलते हैं। इस बीच गर्भगृह का मुख्य द्वार और मंदिर के सभी द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। रात के समय यहां कोई नहीं रुकता। सुबह मंदिर के पट खुलने पर चौसर बिखरी मिलती है। पुजारी और श्रद्धालुओं का दावा है कि भगवान स्वयं यहां आते हैं और चौसर खेलते हैं।
प्रदेश के बड़े आयोजन मेें शामिल शिवडोला 11 सितंबर को
शहर के अधिष्ठाता देव के रुप में पूजे जाने वाले सिद्धनाथ महादेव का शिवडोला 11 सितंबर को भादौ वदी दूज पर निकलेगा। भगवान सिद्धनाथ पूरे लाव लशकर के साथ भक्तों को दर्शन देंगे और प्रजा का हाल जानेंगे। शिवडोले को मध्यप्रदेश के बड़े धार्मिक आयोजना में गिना जाता है। इस आयोजन में शामिल होने और बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए लाखों भक्त देशभर से शामिल होते हैं। शिवडोले के नगर भ्रमण में लगभग 16 से 18 घंटे का समय लगता है। पहले यह डोला ठेलागाड़ी पर निकलता था। समय के साथ डोले की भव्यता बढ़ती गई।