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तेरहवीं में जाने से पहले एक बार जरूर जान लें यह बात, नहीं तो बाद में स्वयं ईश्वर भी नहीं कर सकते रक्षा

मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा मृत्यु भोज आयोजन किया जाता है। अब सवाल यह आता है कि क्या किसी की तेरहवीं में जाकर भोजन ग्रहण करना उचित है?

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Arijita Sen

Aug 20, 2018

तेरहवीं में जाकर भोजन ग्रहण करना

तेरहवीं में जाने से पहले एक बार जरूर जान लें यह बात, नहीं तो बाद में स्वयं ईश्वर भी नहीं कर सकते रक्षा

नई दिल्ली। संसार में जन्म लेने वाले हर एक व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है। इंसान की मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा मृत्यु भोज या तेरहवीं का आयोजन किया जाता है। अब सवाल यह आता है कि क्या मृत्युभोज या किसी की तेरहवीं में जाकर भोजन ग्रहण करना उचित है? या नहीं? यह सवाल अकसर लोगों के दिमाग में आता है। कुछ लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं होती है, वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो किसी की तेरहवीं में जाकर खाना खाने की बात को पसंद नहीं करते हैं।

हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए हैं। इनमें सबसे पहला संस्कार गर्भाधान है और अन्तिम व 16वां संस्कार अन्त्येष्टि है। यानि कि इन 16 संस्कारों के बाद कोई 17वां संस्कार है ही नहीं। अब जब 17वां संस्कार की कोई बात ही नहीं कही गई है तो तेरहवीं संस्कार कहां से आ गया? आज हम आपको महाभारत में मृत्युभोज से जुड़ी हुई एक कहानी के बारे में बताएंगे जिससे आपको एक हद तक समझ में आ जाएगा कि क्या वाकई में मृत्युभोज में जाना उचित है या नहीं?

इस कहानी में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने शोक या दुख की अवस्था में करवाए गए भोजन को ऊर्जा का नाश करने वाला बताया है। इस कहानी के अनुसार, महाभारत का युद्ध शुरू होने ही वाला था।

भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर संधि करने का आग्रह किया। उन्होंने दुर्योधन के सामने युद्ध न करने का प्रस्ताव रखा। हालांकि दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की एक ना सुनी।

दुर्योधन ने संधि करने के आग्रह को ठुकरा दिया। जिससे श्री कृष्ण को काफी कष्ट हुआ। वह वहां से निकल गए। जाते समय दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से भोजन ग्रहण कर जाने को कहा।

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि, ‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’ अर्थात हे दुर्योधन जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।

इसके विपरीत जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के मन में पीड़ा हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए।

महाभारत की इस कहानी को बाद में मृत्युभोज से जोड़ा गया। जिसके अनुसार अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद मन में अथाह पीड़ा होती है, परिवार के सदस्यों के मन में उस दौरान बहुत दुख होता है।

जाहिर सी बात है कि ऐसे में कोई भी प्रसन्नचित अवस्था में भोज का आयोजन नहीं कर सकता, वहीं दूसरी ओर मृत्युभोज में आमंत्रित लोग भी प्रसन्नचित होकर भोज में शामिल नहीं होते। ऐसा कहा गया कि इससे उर्जा का विनाश होता है।

कुछ लोगों का तो ये तक कहना है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है। महर्षि दयानन्द सरस्वती, पं. श्रीराम शर्मा, स्वामी विवेकानन्द जैसे महान मनीषियों ने भी मृत्युभोज का पूरजोर विरोध किया है।किसी व्यक्ति की मृत्यु पर लजीज व्यंजनों को खाकर शोक मनाने को किसी ढोंग से कम नहीं माना गया है।