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भारत के लिए डॉलर पर निर्भरता घटाना और विकल्प तैयार करना ज़रूरी

अमेरिका से संबंधों में खटपट और डॉलर के घटते दबदबे के बीच भारत के लिए डॉलर पर निर्भरता घटना कितना ज़रूरी है? इस बारे में वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. अजीत रानाडे ने विस्तार से अपनी राय जाहिर की है।

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भारत

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Tanay Mishra

Sep 29, 2025

India needs to reduce its dependence on dollar

India needs to reduce its dependence on dollar (Photo - Patrika Graphics)

अमेरिका दुनिया का सबसे ज़्यादा कर्ज़दार देश है। उसका सालाना बजट घाटा लगभग दो ट्रिलियन डॉलर्स है। इसके ऊपर पुराने कर्ज़ भी हैं, जिन्हें इस साल चुकाया जाना है। नए-पुराने कर्ज़ों को मिलाकर इस साल अमेरिका को दस ट्रिलियन डॉलर्स से ज़्यादा उधार लेना पड़ेगा। इन पैसों को अमेरिका अपने देश के और विदेशी निवेशकों के ज़रिए जुटाता है। दुनिया के देशों के विदेशी मुद्रा भंडार से भी यह पैसा अमेरिका तक पहुंचता है। इससे वैश्विक स्तर पर डॉलर की उपलब्धता और बचत पर दबाव पड़ता है। निवेशकों को आकर्षित करने के लिए अमेरिकी बॉन्ड पर जोखिम-रहित ब्याज दर ऊंची रखी जाती है, जो इस समय लगभग 5% है। किसी अन्य देश पर अगर इतना भारी कर्ज होता तो उसकी अंतर्राष्ट्रीय साख यानी क्रेडिट रेटिंग तुरंत गिर जाती। लेकिन अमेरिकी डॉलर अब भी दुनिया का सरताज है। इतना ज़रूर है कि डॉलर की चमक-दमक अब धीरे-धीरे फीकी पड़ रही है। बीते 20 सालों में दुनिया के कुल विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर का हिस्सा 72% से घटकर 58% रह गया है। इसका मतलब है कि डॉलर का दबदबा घट रहा है।

भारत समेत दुनिया को डॉलर पर निर्भरता घटाने की ज़रूरत

वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. अजीत रानाडे ने बताया कि आज पूरी दुनिया ‘डी-डॉलराइजेशन’ यानी डॉलर पर निर्भरता घटाने की बात कर रही है। इसका असर दिखता भी है। पिछले 50 सालों में पहली बार 2025 की पहली छमाही में डॉलर की ताकत को मापने वाला डॉलर इंडेक्स 11% गिर गया। दूसरी बड़ी खबर है कि सोने की कीमतों में उछाल से इतिहास में पहली बार वैश्विक स्वर्ण भंडार का मूल्य अमेरिकी डॉलर परिसंपत्तियों से ज़्यादा हो गया है। केंद्रीय बैंकों के पास मौजूद सोने का बाज़ार मूल्य अमेरिकी बॉन्ड्स से बड़ा हो गया है। डॉलर का वर्चस्व कायम है, पर प्रतीकात्मक रूप से बदलाव दिख रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद देशों को डॉलर में रखे अपने भंडार पर दोबारा सोचने पर मजबूर किया। यूरोप के केंद्रीय बैंकों में रखे रुस के डॉलर भंडार पर अप्रत्यक्ष ‘कब्जे’ ने संदेश दिया कि डॉलर में रखे भंडार भू-राजनीतिक जोखिम से भरे हैं। ऐसे में भारत समेत दुनिया को डॉलर पर निर्भरता घटाने की ज़रूरत है।

डॉलर की शक्ति के तीनों बड़े स्तंभ कर रहे हैं चुनौती का सामना

डॉलर की शक्ति के तीनों बड़े स्तंभ - अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, बॉर्डर पार लेन-देन और विदेशी मुद्रा भंडारों में डॉलर की प्रमुख हिस्सेदारी, अब चुनौती का सामना कर रहे हैं। इसी साल जब ब्रिक्स देशों ने डॉलर की जगह अपनी मुद्राओं में व्यापार करने का विचार रखा तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ऐसा करने पर खुलेआम भारी टैरिफ लगाने की धमकी दी। डॉलर की बादशाहत बचाने के लिए उन्होंने व्यापार नीति को हथियार बना लिया।

भारत के सामने भी अड़चन, फिर भी कर रहा है काम

भारत ने भी डी-डॉलराइजेशन की दिशा में काम किया। भारत और रुस ने 2023-24 के दौरान आपसी व्यापार रुपए में निपटाने के विकल्प तलाशे। लेकिन बात बढ़ी नहीं, क्योंकि रूस कहीं और अपरिवर्तनीय रुपए के ढेर पर नहीं बैठना चाहता था। इसके बाद भारतीय रिज़र्व बैंक ने विदेशी बैंकों के वोस्त्रो खाते में पड़े अधिशेष रुपए को पूरी तरह से भारतीय सरकारी बॉन्ड में निवेश करने की अनुमति दी। फिर भी,भारत के लिए रुपए में व्यापार को बड़े पैमाने पर आगे बढ़ाने में मुख्य अड़चन यही है कि उसके साझेदार देश भारतीय माल खरीदने और रुपए-आधारित परिसंपत्तियों में निवेश करने में कितनी दिलचस्पी दिखाते हैं। भारत भी ई-रुपया योजना और यूपीआई का विदेशों तक विस्तार कर रहा है। इससे व्यापार का कुछ हिस्सा डॉलर पर निर्भर हुए बिना भी किया जा सकता है। लेकिन यह अभी शुरुआती दौर में है।

भारत के सामने क्या है सबसे बड़ी चुनौती?

रुपए में व्यापार धीरे-धीरे ही बढ़ पाएगा, क्योंकि चुनौती यह है कि भारत का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य अमेरिका है। इसलिए भारतीय कंपनियाँ अब भी डॉलर को प्राथमिकता देती हैं। डॉलर भले ही दुनियाभर में कमज़ोर पड़ा हो, लेकिन रुपया उसके सामने और ज़्यादा गिर गया है। इससे दो बातें साफ होती हैं। पहली यह कि डॉलर के कमज़ोर होने के बावजूद रुपया कमजोर हो सकता है और दूसरी यह कि वैश्विक कारकों के साथ भारत की आंतरिक परिस्थितियाँ जैसे, आयात शुल्क, विदेशी पूंजी निकासी या तेल कीमतें भी रुपए को प्रभावित करती हैं। ट्रंप, भारत पर रूसी तेल आयात घटाने का दबाव बना रहे हैं। भारत पर 50% टैरिफ भी लगाया गया है। नतीजतन रुपया और गिर गया, क्योंकि बाज़ार को लग रहा है कि निर्यात से कमाई घटेगी और आयातकों को लगातार डॉलर की ज़रूरत बनी रहेगी।

अर्थव्यवस्था को ज़्यादा मज़बूत करना लक्ष्य

भारत की डॉलर पर निर्भरता घटाने की रणनीति का मतलब डॉलर के खिलाफ जंग छेड़ना नहीं है। असली मकसद है अपनी अर्थव्यवस्था को ज़्यादा मज़बूत और मोलभाव करने लायक बनाना। व्यावहारिक रूप में यह कुछ इस तरह है कि जहाँ भी संभव हो रुपए में व्यापार किया जाए और विदेशों में रुपए सुरक्षित रखने और इस्तेमाल करने के लिए रास्ते बनाए जाए। इसके साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार में सोना और दूसरी भरोसेमंद परिसंपत्तियों से विविधता लाना और डिजिटल रुपए और भुगतान प्रणालियों का उपयोग करना भी ज़रूरी है, जिससे भू-राजनीतिक संकट में डॉलर रुकावट न बन सके।

एक ही जगह पर पूरी तरह से निर्भरता घटेगी

भारत के इन सभी कदमों से डॉलर का दबदबा खत्म नहीं होगा। हालांकि इससे भारत की एक ही जगह पर पूरी तरह से निर्भरता घटेगी और उसकी कमज़ोरी भी कम होगी। अंत में एक विरोधाभास समझना ज़रूरी है। कमज़ोर डॉलर निर्यातक अमेरिका को फायदा देता है, पर अमेरिका अपनी और डॉलर की ताकत बचाने के लिए खुलकर दबाव और धमकियों का सहारा भी लेता है। भारत जैसे देशों के लिए सबसे व्यावहारिक रास्ता है अपने विकल्प खुले रखना, घरेलू पूंजी बाज़ारों को गहरा करना और रुपए को विदेशियों के लिए आकर्षक बनाना। सही मायनों में डी-डॉलराइजेशन का अर्थ परित्याग नहीं, बल्कि विकल्पों का निर्माण है।