
morla cop
Film Moral Cop : मशहूर वरिष्ठ संपादक व कथाकार पंकज शर्मा ( Pankaj Sharma )ने कहा, मोबाइल एक गंभीर समस्या(mobile addiction) है,आजकल जिसका कोई नहीं होता, उसका मोबाइल होता है,जिसका मोबाइल होता वो किसी का नहीं रहता। सृजनी यूरोप चैनल (Srijani Europe Channel)पर जर्मनी में प्रवासी भारतीय डॉ.शिप्रा शिल्पी सक्सेना (Dr.Shipra Shilpi Saxena) के संयोजन में जनसमूह के समक्ष सजे संवाद कार्यक्रम में यह स्वर उभरा। इसके अंतर्गत मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण अन्ना केरेनिना, ऑस्कर वाइल्ड व प्रेमचंद की परंपरा के संवाहक कहे जाने वाले पत्रकार पंकज शर्मा कृत कहानी संग्रह “खिड़कियां” व मोबाइल की तिलस्मी दुनिया में खोते जा रहे बचपन, जिम्मेदारी से बचते माता पिता के दायित्व पर सवालिया निगाह उठाती निर्देशक पवनकुमार की फ़िल्म "मॉरल कॉप"(Film Moral Cop) पर अत्यंत जरूरी व विचारों को झकझोरती हुई चर्चा की गई।
जहां एक ओर कथाकार पंकज शर्मा ने बताया कि उनका कहानी संग्रह खिड़कियां ( Khirkiyan) मन के अंदर की ओर खुलता है, इसका हर पात्र, हर स्थिति, हर कहानी आत्मावलोकन करने को विवश करती है। इसके पात्र उनके जीवन से जुड़े लोग हैं, हर कहानी में वो स्वयं एक चरित्र हैं और साथ ही साथ ये कहानियां मानवीय संवेदनाओं का खुला कच्चा चिट्ठा हैं, जो आहत भी करती हैं, प्रश्न भी उठाती हैं , सुप्त संवेदनाओं को झकझोरती भी हैं और पाठको को सोचने पर मजबूर कर देती हैं। यदि इसमें मिट्टी की सौंधी खुशबू है तो शहरी जीवन का रूखापन भी है। खिड़कियां संवेदनाओं, प्रेम, रिश्तों का पर्याय भी है और समाज की विसंगतियों के मुंह पर तमाचा भी।
उन्होंने कहा एक गीतकार से कथाकार बनना भावनाओं का विस्तार ही है। गीत भी संवेदना युक्त होते है, मन के भावों को कहने में सक्षम होते हैं, लेकिन गीतों की एक सीमा होती है भावनाओं को विस्तृत एवं स्टीक रूप से लोगों तक पहुंचाने के लिए कहानी सशक्त माध्यम है।
पंकज शर्मा ने कहा, आज के युग में सब नहीं, लेकिन पाठक व दर्शक का एक वर्ग पढ़ते और देखते सब हैं,मगर स्वीकार नहीं करना चाहते। फिल्में उनके सामने आईने का कार्य करती हैं। इसलिए वो इन्हे नकार देते हैं। सच्चे पाठकों और दर्शकों को एक बार सच स्वीकार करना चाहिए। फिर चाहे वो सिरे से नकार दें, लेकिन एक बार सही अर्थों में फिल्मों व किताबों को पढ़ें या देखें।
डॉ.शिप्रा शिल्पी सक्सेना (Dr.Shipra Shilpi Saxena) ने कहा, संवेदनहीनता का ग्राफ कुछ वर्षों में ऊपर चढ़ा है। लोग स्थितियों को यथावत स्वीकार करना नहीं चाहते। आज के युवाओं में बढ़ते अवसाद की समस्या का मुख्य कारण संवादहीनता है। डिजिटल युग के बच्चे हर समस्या का हल गूगल पर ढूंढ लेते हैं व माता पिता से कटते चले जाते है। इसलिए संवाद बनाए रखें।
उन्होंने फिदेल कास्त्रो की बात इतिहास मुझे सही साबित करेगा, उद्धृत करते हुए पवनकुमार की सराहना करते हुए कहा, कलम के निब को और धारदार बनना होगा। समय सबका आएगा। पवनकुमार ने कहा पंकज शर्मा जैसे सशक्त लेखक युग दृष्टा हैं, युग बदल सकते हैं। इस मौके वक्ताओं ने बड़े प्रोडक्शंस के बीच सार्थक व छोटे प्रोडक्शन हाउसेस के अभिनव प्रयोगों को मिलने वाले रोशनदानों, फिल्मों में हिंसा , नग्नता,व्यभिचार कितना उचित, कितनी जरूरी पर भी खुल कर अपने अभिमत प्रस्तुत किए।
पवनकुमार ( PawanKumar) ने कहा, सत्या या बैंडिट क्वीन में दिखाई गई नग्नता और हिंसा शर्मसार करती है वो उत्तेजक नहीं, विचारोत्तेजक है। एक सबक देती है, कोई सत्या नहीं बनना चाहता,ये फिल्में गलत के गलत परिणामों को दिखाती हैं। वही विज्ञापनों में निरर्थक स्त्री के शरीर का प्रदर्शन घोर व्यवसायीकरण व छोटी सोच का परिचायक है और निरर्थक भी।
पवनकुमार ने अपनी फिल्म मॉरल कॉप के विषय में बताते हुए कहा, यदि इसका हिंदी रूपांतरण किया जाए तो इसे नैतिकता का पहरेदार कहा जाएगा, लेकिन अब यह शब्द अपना अर्थ खो चुका है। बच्चों के जीवन में यह शब्द विद्रूप हो चुका है। Forbidden fruites are always sweeter यानि जिन बातों के लिए बच्चो को रोका जाता है वो हमेशा आकर्षित करती हैं। यदि माता पिता साथ रह कर मार्ग दिखाते हैं, तो बच्चे के भटकने की संभावना न के बराबर रहती है, लेकिन यदि उन्हें यह सरपरस्ती न मिले तो बच्चे गलत संगत, जो आजकल मोबाइल भी है, उसकी जकड़ में आ जाते हैं। बिना संरक्षण के बच्चे भटक जाते हैं, कच्ची उम्र में वे अपनी सृजनात्मकता, विचारात्मकता और कल्पनाशीलता खो देते हैं।
डॉ. शिप्रा शिल्पी सक्सेना ने कहा, यह आज का सबसे ज्वलंत विषय है, जिस पर बात ही नहीं, वरन सकारात्मक कदम भी उठाने चाहिए। मोबाइल की तिलस्मी दुनिया के अंदर आजकल लोग एक अलग दुनिया बसा लेते हैं और वास्तविक जीवन से दूर होते जा रहे हैं। ये चक्रव्यूह है, जिससे निकलना नामुमकिन सा होता जा रहा है।
कार्यक्रम में अमेरिका, कनाडा, नाइजीरिया, ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान व कतर आदि अनेक देशों से जुड़े प्रबुद्ध जनसमूह के समक्ष अपनी मां को याद करते हुए पंकज शर्मा के गीत "अम्मा को कोई तो जादू आता था" ने जहां आंखों को नम कर दिया, वहीं पवन कुमार की कविता "अम्मा कैसे हंस लेती हो" ने जनसमूह को भावुक कर दिया।
जहां पंकज शर्मा ने एक जरूरी कविता "कल जब उसने मुझे टोका तो तुम याद आए" के माध्यम से पिता के जीवन का महत्व जनसमूह तक पहुंचाया। वहीं पवनकुमार ने "हां मैं बदजुबान हूं" कविता पाठ से अपने मन को खोल कर रख दिया। डॉ. शिप्रा ने अपनी कविता "चूल्हे पर काढ़ कर पकाई गई लड़कियां" सुना कर जनसमूह के विचारों को नई दिशा दी। वहीं पवनकुमार की युद्ध बंदी लड़कियों पर सुनाई अत्यंत सच्ची व मार्मिक कविता ने जनसमूह के रोंगटे खड़े कर दिए।
इन सब जरूरी संवादों के मध्य अपनी मधुर वाणी में पंकज शर्मा का गीत "सीने में एक हीर छुपा कर रही है" शीतल फुहार सा जनसमूह के मन पर प्रेम की बौछार कर गया। डॉ.शिप्रा शिल्पी सक्सेना ने गणेश स्तुति से करते हुए कहा कि आज के नागफनी युग में मन की शुचिता, पावनता व सच्चाई को बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है, जो विरले मन सर्वजन हिताय के इस भाव को जीवित रखते हुए लीक से हट कर कुछ अभिनव कर पाते है, वो विश्व, देश, समाज व परिवार के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं। पंकज शर्मा और पवन कुमार के लेखन व सृजनात्मक कार्यों की सराहना करते हुए उन्होंने उन्हे सच्चे कर्मयोगी की संज्ञा दी।
अंत में डॉ शिप्रा का गीत "फिर भी जीवन जीना है" , विसंगतियों में भी सच्चे अर्थों में जीवन जीने का संदेश दे गया।
Published on:
12 Sept 2024 08:09 pm
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