
babu gulabrai
बाबू गुलाबराय हिन्दी साहित्य के एक ऐसे प्रकाश पुंज थे जिनके दिव्य आलोक से न केवल आगरा मंडल अपितु हिन्दी जगत दैदीप्यमान होता रहा। उनकी साहित्य साधना उनके विराट व्यक्तित्व की साकार अभिव्यक्ति है। बाबू गुलाबराय बहुज्ञ, किन्तु अति विनम्र थे। इससे भी अधिक वे सह्दय मानव थे और मानव जीवन की समग्रता अपने में समेटे हुए थे। उनकी कृतियों द्वारा कोई उन्हें श्रेष्ठ समीक्षक, अप्रतिम, निबंधकार, दार्शनिक, अध्यापक एवं सुयोग्य सम्पादक बताना चाहता है। निःसंदेह उनमें ये सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने अपने रचना संसार द्वारा जीवन के भोगे हुए अनुभव को बड़े ही सहज ढंग से व्यक्त कर दिया है। यही कारण है कि उनकी रचनाएं पढ़कर जहां सह्दय पाठक आत्मविभोर हो जाता है, वहीं उनसे वह अपना मार्गदर्शन भी ग्रहण करता है। इस प्रकार बाबू जी का साहित्य समग्रता का संदेश वाहक बनकर आया है और उनकी यही विशेषता अन्य साहित्यकारों से उनकी अलग पहचान बनाती है।
इटावा में जन्मे, आगरा कर्मभूमि
बाबू गुलाबराय का जन्म 17 जनवरी, 1888 तद्नुसार माघ कृष्णा चतुर्थी संवत् 1944 को इटावा में हुआ था। वे अपना जन्मदिवस वसंत पंचमी से एक दिन पूर्व मनाते थे। इस कारण उनका जन्मदिवस 21 जनवरी, 2018 को नागरी प्रचारणी सभागार, आगरा में मनाया जाएगा। प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में हुई। उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु आगरा में आए। 1913 में सेंट जॉन्स कॉलेज से एम.ए. (दर्शनशास्त्र), तथा 1917 में आगरा कॉलेज से एल.एल.बी. करने के पश्चात् छतरपुर राज्य के महाराजा श्री सर विश्वनाथ सिंह जू के दार्शनिक सलाहकार, निजी सचिव, दीवान एवं मुख्य न्यायाधीश के रूप में 18 वर्षो तक कार्य किया। छतरपुर से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने आगरा को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। आगरा में आकर सबसे पहले वे जैन बोर्डिंग स्कूल के वार्डन बने। तत्पश्चात् सन् 1934 में वे सेंट जॉन्स कॉलेज में हिन्दी के अवैतनिक प्राध्यापक बने। सन् 1935 से उन्होंने ‘साहित्य संदेश’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। इस पत्रिका के माध्यम से बाबू जी ने उस समय हिन्दी विषय की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों, प्राध्यापकों एवं शोधार्थियों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने ‘शान्तिधर्म’ नामक कृति की रचना सन् 1913 में की, तब से लेकर जीवन पर्यन्त वे लेखन में रत रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य में दर्शन, निबंध, आलेाचना आदि विविध विधाओं पर अनवरत लेखनी चलाकर हिन्दी वाङ्मय को लगभग 50 ग्रन्थ प्रदान किए।
सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का समावेश
बाबू जी के साहित्य की एक विशेषता, उसमें सत्यं, शिवं और सुन्दरम् का समावेश है। बाबू जी ने जो कुछ व्यक्त किया है वह बड़ी ही सहजता एवं ईमानदारी से। उनके साहित्य में सत्यानुभूतियों के ही चित्रण हुए हैं पर उनकी ये अनुभूमियाँ मानव को शिवम का मार्ग दर्शाती हैं और कालान्तर में उसमें सुन्दरम् के भी दर्शन होने लगते हैं।
मानवतावादी स्वर का समावेश
उनकी कृतियों में हमें मानवतावादी स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। उन्होंने एक सच्चे मानव की कल्पना की है और सच्चा मानव कोई तभी बन सकता है जब उसमें उदात्त जीवन मूल्य हों। उदात्त जीवन मूल्यों के अभाव में तो मानव अपना देव दुर्लभ तन नरक तुल्य बनाया करता है।
हिन्दी के अनन्य सेवक
बाबू गुलाबराय ने उस युग में हिन्दी की सेवा की है जब तत्कालीन शासकों द्वारा उसे वर्नाक्युलर लैंग्वेज अर्थात् देशी या गँवारू भाषा का दर्जा दिया गया था। उसे तत्कालीन शासक जनता की बोलचाल की भाषा तो मानते थे पर वे उसे समुचित आदर नहीं देते थे। बाबू जी तथा उन्हीं के सदृश अन्य सरस्वती के साधकों ने अनवरत एवं अथक् साधना करके हिन्दी को उच्च एवं सम्मानीय स्थान दिलाया। बाबू गुलाबराय में हिन्दी के प्रति विशेष लगाव था। यद्यपि छात्रावस्था में उन्होंने हिन्दी विषय का अध्ययन नहीं किया था तथापि एम.ए. की उच्च परीक्षा भी उन्होंने दर्शनशास्त्र से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् वकालत की शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा-दीक्षा की समाप्ति के पश्चात् राजसी वातावरण में कार्य करना आरम्भ कर दिया। राजसी वातावरण में भी चर्चा के विषय दर्शनशास्त्र से ही अधिकांश में सम्बन्धित रहते थे। उनके लेखन का आरम्भ भी दर्शनशास्त्र से ही हुआ। इतना सब होते हुए भी उनमें हिन्दी के प्रति विशेष लगाव था और इसी कारण उन्होंने दर्शनशास्त्र आदि का प्रणयन हिन्दी में ही किया।
ज्ञान के अक्षय कोष
बाबू गुलाबराय जी ज्ञान के अक्षय कोष थे। जीवनपर्यंत साहित्य साधना में जुटे रहने वाले इस महान् साहित्यकार ने सन् 1913 में ‘शान्ति धर्म’ तथा ‘मैत्री धर्म’ नामक कृतियों से साहित्य संसार में पदार्पण किया और मृत्यु से एक वर्ष पूर्व अर्थात् सन् 1962 में ‘जीवन रश्मियां’, ‘निबंध माला’ और ‘सांस्कृतिक जीवन’ नामक कृतियां लिखकर विराम लिया। लगभग पचास वर्ष की सुदीर्घ अवधि में उन्होंने पचास से अधिक कृतियां प्रस्तुत की। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य विषयों यथा ‘कर्तव्य शास्त्र सन् 1915’ ‘तर्कशास्त्र सन् 1916’ ‘पाश्चात्य दर्शन का इतिहास 1918’ ‘बौद्ध धर्मा 1930’ ‘विज्ञानवार्ता 1936’ ‘विज्ञान विनोद 1937’ पर भी अपनी लेखनी चलाकर सरस्वती के अक्षय भंडार को समृद्ध किया है। साहित्यिक कृतियों में आपने ‘नवरस 1953’ ‘हिन्दी नाट्य विमर्श 1938’ ‘हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास 1940’ ‘सिद्धान्त और अध्ययन 1938’ ‘काव्य के रूप 1946’ ‘हिन्दी काव्य विमर्श 1946’ ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास 1953’ ‘आलोचना कुसुमांजलि 1948’ ‘रहस्यवाद और हिन्दी कविता 1953’ और ‘हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैली कार 1958’ आदि का सृजन किया है।
दार्शनिक
बाबू गुलाबराय जी का दार्शनिक के रूप में भी इतना ही सम्मान था जितना कि सुधी समीक्षक एवं साहित्यकार के रूप में। तत्कालीन छतरपुर के महाराजा सर विश्वनाथ सिंह जू गुणी साहित्यकार एवं दार्शनिक अभिरुचि के राजा थे। अतः उन्होंने अपने यहां के लिए दर्शनशास्त्र के एक सहयोगी की नियुक्ति की विज्ञापन समाचार पत्र में निकाला और वहीं विज्ञापन बाबू गुलाबराय को छतरपुर राज्य से जोड़ने में सहायक हुआ। बाबू जी के छतरपुर राज्य में नियुक्त हो जाने पर नित्य प्रति महाराजा के साथ सन्त समागम एवं भगवत चर्चा का वातावरण गहमने लगा। छतरपुर महाराज की गुण ग्राहकता के कारण देश विदेश के प्रायः सभी सम्प्रदायों के संत एवं विद्धान, वहां आते रहते थे। इसी समय बाबू गुलाबराय द्वारा सृजित ग्रन्थ ‘तर्कशास्त्र’ (तीन भाग, प्रकाशन वर्ष 1916) ने हिन्दी में दर्शनशास्त्र के लिए भूमि प्रस्तुत की। उन्होंने अपने विषय में स्वयं कहा है मेरा प्रारम्भिक जीवन दार्शनिक का रहा फिर दर्शनशास्त्र की लाठी के सहारे साहित्य में प्रवेश किया।
श्रेष्ठ निबन्धकार
बाबू जी मूलतः निबन्धकार थे। उनके निबन्धों में विचारों की सुगुम्फितता एवं चरमोत्कर्ष, शैली का वैशिष्ट्य एवं भाषा का प्रवाह देखा जा सकता है। उनका निबन्ध लेखन बहुआयामी है। उनके लगभग एक दर्जन निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें ‘प्रबन्ध प्रभाकर 1933’ ‘निबन्ध रत्नाकर 1934’ ‘कुछ उथले कुछ गहरे 1955’ ‘मेरे निबन्ध 1955’ ‘अध्ययन और आस्वाद 1956’ ‘जीवन रश्मियां 1962’ ‘निबन्ध माला 1962’ आदि प्रमुख हैं। इन निबन्धें में भावोष्णता और नवीनता के अतिरिक्त सोया हुआ कवि भी प्रायः बोला करता है। पंडित प्रवचन करता दिखाई देता है। कभी-कभी उपदेशक भी बीच-बीच में आ जाता है। साहित्यिक सौष्ठव तो उनमें आद्यन्त रहता ही है क्योंकि ये निबन्ध प्रायः स्वान्तः सुखाय हैं। ये शुद्ध निबन्ध निर्मल मानस की तरंग के समान हैं जिन्हें पढ़कर पाठक के ह्नदय कमल खिल उठते हैं। ‘मेरी असफलताएं’ नामक कृति में बाबूजी ने अपनी सफलताओं का साधिकार वर्णन करने की अपेक्षा अपनी असफलताओं का वर्णन विनम्र भाव से किया है।
शिष्ट हास्य व्यंग्यकार
बाबूजी ने अपने निबंधों में शिष्ट हास्य एवं व्यंग्य को भी स्थान दिया है। पर इस विधा द्वारा वे अपने पर ज्यादा हंसे हैं, दूसरों पर कम। ‘एक बानगी प्रस्तुत है- “मैं दावत देने वालों का विशेष रूप से आभारी रहता हूं और निमंत्रणों से लाभ उठाने की भरसक कोशिश करता हूं। यातायात का कष्ट (विशेषकर जब दावत निशाचरी अर्थात् रात की हो) अखरता है, किन्तु रसना का ब्रह्मानन्द और काव्यानन्द सहोदर आस्वाद उस क्षति की पूर्ति कर देता है। ईश्वर की दया से पेट की पाचन शक्ति तो नहीं, जिह्वा की आस्वाद शक्ति अक्षुण्ण बनी हुई है। प्रीतिभोजों में परोसे हुए मिष्ठानों का सुरभित सौन्दर्य तथा पापड़ी मा मर्मर संगीत एवं आइसक्रीम का स्निग्ध माधुर्य आज भी मुझे आकर्षित करता है। दावतों में उदर और जिह्ना का अंतद्र्वन्द्व उपस्थित हो जाता है। मैं भोजन भट्ट अवश्य हूं किन्तु स्वास्थ्य-भीरू भी हूं। ‘मां शरीरेषु दयां कुरू’ का पक्षपाती नहीं।”
लोकोक्तियों एवं मुहावरों के रोचक प्रयोगकर्ता
बाबूजी ने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का नये परिवेश में बड़ा ही रोचक प्रयोग किया है। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं-
(1) “सब लोग नेता नहीं हो सकते क्योंकि यदि सब ही नेता बन जाएं तो ‘नाउओं की बारात में ठाकुर ही ठाकुर चिलम भरने कौन जाए’ की समस्या उपस्थित हो जायेगी।“
(2) “मेरा उस साधु का सा हाल था जिसने कम्बल के धोखे तैरते हुए रीछ को पकड़ लिया था फिर वह उस कम्बल को छोड़ना चाहता था लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता।”
(3) “साईकिल के वे इतने सिद्धपग थे कि दिन भर में मेरठ पहुंच जाते थे।”
सहज व्यक्तित्व
बाबूजी सन्त स्वभाव के, मृदु एवं अल्पभाषी थे। सत्य की डगर पर चलने वाले, परिछिद्रान्वेषण से दूर रहने वाले, दूसरों को चाहे वह कितना ही छोटा हो (पद या वय में) उचित आदर देने वाले, अहंकार से दूर, दूसरों के दुख में दुखी तथा परम सन्तोषी स्वभाव के थे
विनम्रता की साक्षात् मूर्ति
बहुज्ञ एवं बहु अधीत होते हुए भी वे आजकल के पल्लवग्राही विद्वानों के सदृश बरसाती मेढ़क बनकर कभी भी नहीं फुदकते थे। उन्होंने अपनी विद्वता के अहं को कहीं भी नहीं बखाना है। वे ‘विद्या ददाति विनयं’ के जीवन्त उदाहरण थे। दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, पुराण, वैद्यक, विज्ञान, नीति, धर्म आदि के निष्णात् पण्डित थे। उनकी रचनाएं उनकी इस बहुज्ञता की प्रमाण हैं पर वे जितने बहुज्ञ एवं बहु अधीत थे, उतने ही विनम्र। संभवतः गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे ही विनम्र विद्वानों को देखकर कहा होगा- ‘बरसहिंजलद भूमि नियराये। यथा नवहिं बुध विद्या पाये’।
लेखन एवं ज्ञान के प्रति पूर्ण ईमानदारी
बाबू गुलाबराय जी श्रेष्ठ निबंधकार, प्रतिष्ठित समीक्षक एवं साहित्यकार थे। वे सारग्रही, समन्यवादी, समग्रता के संदेश वाहक थे। इतना सब कुछ होते हुए भी वे अपने लेखन एवं ज्ञान के प्रति पूर्ण ईमानदार थे। उन्होंने अपने विषय में लिखा है-
(1) “मुझे अपने मिडियोकर होने पर गर्व है।”
(2) ”लेखक भी मैं ठोंक पीटकर ही बना हूं। प्रतिभा अवश्य है परन्तु एक तिहाई से अधिक नहीं मेरे लेखन में दो तिहाई परिश्रम और चोरी रहती है। मुझमें पांडित्य चाहे हो किन्तु गहराई नहीं है, यथार्थता और निश्छलता से तो और भी कम। किन्तु मैं इस कमी को सफलतापूर्वक छिपा लेता हूं।“
(3) “कुछ पुस्तकें स्वान्तः सुखाय लिखीं, शेष पुस्तकों का अधिकांश में ‘उदर निमित्त’ ही निर्माण हुआ।

बाबू गुलाबराय के प्रति श्रेष्ठ साहित्यकारों के विचार
”पहली ही भेंट में उनके प्रति मेरे मन में आदर उत्पन्न हुआ था, वह निरन्तर बढ़ता ही गया। उनमें दार्शनिकता की गंभीरता थी परन्तु वे शुष्क नहीं थे, उनमें हास्य-विनोद पर्याप्त मात्रा में था, किन्तु यह बड़ी बात थी कि औरों पर नहीं अपने ऊपर हँस लेते थे।“
- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
”बाबूजी ने हिन्दी के क्षेत्र में जो बहुमुखी कार्य किया, वह स्वयं अपना प्रमाण आप है। प्रशंसा नहीं, वस्तुस्थिति है कि उनके चिन्तन, मनन और गम्भीर अध्ययन के रक्त निर्मित गारे से हिन्दी-भारती के मन्दिर का बहुत-सा भाग प्रस्तुत हो सका है।”
- पं. उदयशंकर भट्ट
”आदरणीय भाई बाबू गुलाबराय जी हिन्दी के उन साधन पुत्रों में से थे, जिनके जीवन और साहित्य में कोई अन्तर नहीं रहा। तप उनका सम्बल और सत्य स्वभाव बन गया था। उन जैसे निष्ठावान्, सरल और जागरूक साहित्यकार विरले ही मिलेंगे। उन्होंने अपने जीवन की सारी अग्नि परीक्षाएँ हँसते-हँसते पार की थी। उनका साहित्य सदैव नई पीढ़ी के लिए प्रेरक बना रहेगा।“
-महादेवी वर्मा
”गुलाबराय जी आदर्श और मर्यादावादी पद्धति के दृढ़ समालोचक थे। भारतीय कवि-कर्म का उन्हें भलीभांति बोध था। विवेचना का जो दीपक वे जला गये उसमें उनके अन्य सहकर्मी बराबर तेल देते चले जा रहे हैं और उसकी लौ और प्रखर होती जा रही है। हम जो अनुभव करते हैं- जो अस्वादन करते हैं वही हमारा जीवन हैं।“
-पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र
”अपने में खाये हुए, दुनिया को अधखुली आँखों से देखते हुए, प्रकाशकों को साहित्यिक आलंब, साहित्यकारों को हास्यरस के आलंबन, ललित-निबन्धकार, बड़ो के बन्धु और छोटों के सखा बाबू गुलाबराय को शत् प्रणाम।“
- डॉ. रामनिवास शर्मा
”बाबू गुलाबराय उन आलचकों में से थे जिनसे कोई भी अप्रसन्न नहीं था इस कारण उन्हें ”अजात शत्रु“ की संज्ञा दी जा सकती है। वे हिन्दी के पहली पीढ़ी के आचार्यों के अग्रणीय थे।“
- डॉ. नामवर सिंह
साहित्यकारों के मार्गदर्शक
बाबूजी अनेक साहित्यकारों के मार्गदर्शक रहे हैं। पं. श्री गोपाल व्यास ने बाबूजी के विषय में कहा है- ‘वह समय के सारथी थे। अपने रथ पर बैठाकर उन्होंने मुझ जैसे अनेक नवयुवकों को अपनी मंजिल तक पहुंचने में सहायता की थी। वह स्वयं समय के साथ चले। लोगों को समय के साथ चलने की प्रेरणा दी।’
बाबू गुलाबराय का कृतित्व
दर्शनः
शान्ति धर्म, मैत्री धर्म, कत्र्तव्य शास्त्र, तर्क शास्त्र (तीन भाग), पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास, बौद्ध धर्म, भारतीय संस्कृति की रूप रेखा, गाँधीय मार्ग, मन की बातें।
समीक्षाः
नवरस, हिन्दी नाट्य विमर्श, हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास, हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, सिद्धान्त और अध्ययन, काव्य के रूप, हिन्दी काव्य-विमर्श, साहित्य-समीक्षा, आलोचना कुसुमांजलि, रहस्यवाद और हिन्दी कविता, हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैलीकार।
आत्म जीवनी एवं अन्य जीवनियाँ
मेरी असफलताएँ, जीवन पथ, अभिनव भारत के प्रकाश स्तम्भ, सत्य और स्वतंत्रता के उपासक।
प्रकीर्णः
फिर निराशा क्यों?, ठलुआ क्लब, विज्ञान वार्ता, विज्ञान विनोद, विधार्थी जीवन।
निबन्ध संकलनः
प्रबन्ध प्रभाकर, निबन्ध रत्नाकार, कुछ उथले कुछ गहरे, मेरे निबन्ध, अध्ययन और आस्वाद, राष्ट्रीयता, जीवन रश्मियाँ, निबन्ध माला।
सम्पादितः
भाषा भूषण, सत्य हरिश्चन्द्र, प्रसाद जी की कला, आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, युग धारा।
संचयनः
गद्य प्रभा, हिन्दी गद्य निचय, सांस्कृतिक जीवन, बाल शिक्षा निबन्ध माला- भाग 4।
बाबूजी पर रचनाएंः
बाबू गुलाबराय जी की जीवनी की झलक-2002, बाबू गुलाबराय की हास्य व्यंग्य रचनाएँ-2004, बाबू गुलाबराय व्यक्तित्व और कृत्तित्व (संस्मरण)- 2004, मेरे मानसिक उपादान- 2006, पत्रों के दर्पण में बाबू गुलाबराय- 2008, बाबू गुलाबराय के विविध निबन्ध- 2011
प्रस्तुतिः संजय राय (बाबू गुलाबराय के पौत्र)
आगरा
Updated on:
20 Jan 2018 08:45 pm
Published on:
20 Jan 2018 08:35 pm
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