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खुशियां लेकर आ रहा ईद का चाँद

locationआगराPublished: Jun 14, 2018 08:29:50 am

Submitted by:

Bhanu Pratap

रोज़ों के मायने सिर्फ यही नहीं है कि इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहना होता है बल्कि रोज़ा वो अमल है जो रोज़ेदार को पूरी तरह से पाकीज़गी (शुद्धीकरण) का रास्ता दिखाता है।

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रमज़ान ऐसा बा-बरकत महीना है जिसका इंतेजार साल के ग्यारह महीने हर मुसलमान को रहता है। इस्लाम के मुताबिक, इस महीने के एक दिन में आम दिनों की तुलना में ज्यादा खा़स माना गया है। इन दिनों मुस्लिम समुदाय के सभी लोगों पर रोज़ा फर्ज (लागू) होता है, जिसे पूरी दुनिया में दूसरे नम्बर की आबादी रखने वाले मुसलमान बड़ी संजीदगी से लागू करने की फ़िक्र रखते हैं। ईद 15 जून को है। ईद का चांद खुशियां लेकर आ रहा है।
रोज़ों के मायने सिर्फ यही नहीं है कि इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहना होता है बल्कि रोज़ा वो अमल है जो रोज़ेदार को पूरी तरह से पाकीज़गी (शुद्धीकरण) का रास्ता दिखाता है। महीने भर के रोजों के जरिए उल्लाह चाहता है कि इंसान की रोज़ाना की जिन्दगी रमज़ान के दिनों के मुताबिक बन जाए। सच है रोज़ा शरीर के हर अंग का होता है। इसमें इंसान के दिमाग़ का भी रोज़ा होता है ताकि इंसान को ख्याल रहे कि उसे कोई गलत बात गुमान नहीं करनी है। उसकी आँखों को भी रोज़ा है ताकि वो किसी से भी कोई बुरे अल्फ़ाज ना कहे और अगर कोई उससे किसी तरह के बुरे अल्फ़ाज कहे तो वो उसे भी इसीलिए माफ कर दे कि उसका रोज़ा है। उसके हाथों और पैरों का भी रोज़ा है ताकि उनसे कोई गलत काम न हों। इस तरह इंसान के पूरे शरीर का रोज़ा होता है, जिसका मक़सद ये है कि इंसान बुराई से जुड़ा कोई भी काम ना करे जो कि अल्लाह अपने बन्दे से चाहता है।
कुल मिलाकर रमज़ान का मक़सद इंसान को बुराइयों के रास्ते हटाकर अच्छाई के रास्ते पर लाना व एक दूसरे से मोहब्बत, भाईचारा और खुशियाँ बाँटना है। इसका मक़सद सिर्फ यही नहीं होता कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान से ही अच्छे अख़लाफ रखे बल्कि मुसलमान पर ये भी फर्ज है कि वो दूसरे मज़हब के मानने वालों से भी मोहब्बत, इज्ज़त व अच्छा अख़लाक़ रखे, ताकि दुनिया के हर इंसान का एक-दूसरे से भाईचारा बना रहे।
हमारा देश हिन्दुस्तान विश्व का पहला और अनोखा ऐसा देश है जहाँ पर हर मजहब के मानने वाले लोग इस तरह रहते है – जैसे एक बगीचे में हर तरह के खिलने वाले और अपनी खुशबू चारों ओर बिखेरने वाले फूल। यहाँ हर मजहब के बन्दों को अपने मजहब के मुताबिक अपना त्योहार मनाने की पूरी आजादी है- अगर यहाँ की साम्प्रदायिक एकता पर नज़र दौड़ाई जाये हिन्दू-मुस्लिम एकता का उदाहरण किसी दूसरे देश में देखने को नहीं मिलेगा। वैसे तो इस देश में हर माह किसी न किसी धर्म एवं जाति को सामने रखकर त्योहार मनाते हुये लोग देखे जा सकते हैं- लेकिन मुस्लिम भाइयों के दो मुख्य त्योहार हैं – ईदुल-फितर यानी ईद और बकरीईद हमारे हिन्दू भाइयों का होली और दीवाली है।
ईद का त्योहार एक माह के ”रोजों“ के बाद ही मनाया जाता है – इस ईद के त्योहार का नौजवानों से ज्यादा बच्चों को बेसब्री से इन्तज़ार रहता है – बच्चों को शायद इसलिये कि वह सोचते हैं कि हमारे नये कपड़े, जूते, खिलौने वगैरह आयेंगे। बच्चे पूरे रमजान माह में अपने वालिदान से पूछते रहते हैं कि ईद के अब कितने दिन बाकी रह गये हैं। इसी तरह बुजुर्ग और नौजवान रमजान माह में रखे जाने वाले ”रोज़ों“ का इनाम ”ईद“ को कहते हैं।
ईद का त्यौहार गरीब परिवार की मदद के रूप में भी देखा जाता है। इस्लाम मजहब के मुताबिक ईद से पहले हर उस मुसलमान को अपने परिवार के हर बन्दे का ”फितरा“ और उस मुसलमानों को जो कारोबारी और हैसियत वाला है ”जकात“ देने की मुस्लिम मजहब इजाजत देता है। वह ज़कात और फितरे की धनराशि विधवा या गरीब, बेसहारा को देने की ही इसलिये इजाजत देता है कि वह परिवार भी ईद की खुषी से महरूम न रहने पाय। जकात एवं फितरे की धनराशि से वह अपने और अपने बच्चों के नये कपड़े एवं जरूरत की चीजें खरीद सके।
फितरा और जक़ात- ईंद की नमाज से पहले ही देने को कहा गया है, लेकिन वर्तमान में कुछ लोग जकात देने की नुमायश भी बनाते देखे जा सकते हैं। जबकि जकात देने या किसी गरीब या बेसहारा की मदद नुमायश के रूप में करने की इस्लाम कतई इजाजत नहीं देता बल्कि हदीस में फ़रमाया गया है कि जकात – या मदद देते वक्त ऐसा माहौल बना हो जो कि काई दूसरा देख न सके और न सुन सके।
ईद के त्योहार के बाद भी एक हफ्ते तक ” ईद-मिलन“ के प्रोग्राम चलते रहते हैं जिसमें हर मजहब और हर वर्ग का बन्दा मौजूद दिखाई देता है। इस खुशी के त्योहार को मनाने के लिये- परिवार का बन्दा (चाहे वह किसी भी दूसरे शहर में सर्विस कर रहो) वह अपने ही लोगों के बीच ईद की खुशियाँ बाँटने के लिये आ ही जाता है।
ईद की नमाज ईदगाह से ही शुरू होकर शहर एवं गाँव की अन्य मजिस्दों में अदा की जाती है। ईदगाह में ईदुल-फितर और ईदुल-अज़ा (बकरी ईद) की ही नमाज अदा होती है, जिसको ज्यादात्तर शहर मुफ़्ती ही अता कराते हैं। इस ईद के त्योहार पर भी अब लोग सियासत करने लगे हैं, क्योंकि ईदगाह, जामा मस्जिद या उन मस्जिदों पर जहाँ ईद की नमाज होती है, नमाज से पूर्व ही मजिस्द के गेट पर सियासी लोग पहुँचकर मुस्लिमों से गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते दिखाई देते है और अपनी सियासी पार्टी का ध्यान रखने की विनती भी करते है।
siraj qureshi
प्रस्तुतिः डॉ. सिराज कुरैशी

कबीर पुरस्कार से सम्मानित

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