11 दिसंबर 2025,

गुरुवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

हिन्दू धर्म में क्यों नहीं हो सकता है तलाक, पढ़िए ये रोचक कहानी

क्या आपने कभी सोचा है कि पाणिग्रहण संस्कार में वरिष्ठजन अपने ही बच्चों को चरण स्पर्श क्यों करते हैं?

4 min read
Google source verification
shadi vivah ke shubh muhurat 2018

shadi vivah ke shubh muhurat 2018

मैं ज्ञान नहीं बखार रहा हूँ, आपको स्मरण मात्र करा रहा हूँ कि वाक्य बनता है शब्दों से, शब्द बनता है अक्षर से और अक्षर अर्थात जिसका क्षर न हो।
हमारे द्वारा प्रयोग किये के शब्द-अपशब्द स्रष्टि के अन्त तक आकाश में जीवित रहते हैं, इसीलिये हमें हमारे पूर्वजों ने, ग्रंथों ने, हमेशा बताया कि सोच-समझ कर बोलें, प्रेम भरी वाणी बोलें, अपशब्दों का प्रयोग न करें इत्यादि।
हम अपने संस्कारों का अध्ययन नहीं करते, उन्हें पूर्ण निष्ठा से आत्मसात भी नहीं करते हैं, जिसके कारण जीवन में अनेक अनावश्यक कठिनाइयों का सामना करते हैं।


एक वास्तविक घटना के माध्यम से आपको संदेश देने का प्रयास करता हूँ।
मेरे मित्र की बेटी ने प्रेमविवाह किया है। स्वाभाविक रूप से परिवारिक विरोध था। कई वर्षों के संघर्ष के बाद परिजनों ने रिश्ते को स्वीकार किया और बड़े धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। मैंने भी वर्तमान परिवेश, आधुनिक सोच और भाँति-भाँति के अनुभवों का ज्ञान अपने मित्र व सम्बन्धित को दिया और विवाह सकुशल सम्पन्न कराने में यथोचित योगदान किया।


विवाह के समय वर-वधू के रूप एवं उनकी प्रसन्नता को देख कर दोनों पक्ष अत्यधिक प्रफुल्लित, गर्वित और अपने निर्णय पर संतुष्ट दिखे। विवाह के पश्चात कुछ समय तक पुत्री एवं जामाता के सुखमय जीवन एवं सद्गुणों की जानकारी प्राप्त होती रही। मुझे भी अपने कृत कर्मों पर प्रसन्नता हुई।
विवाह के लगभग एक वर्ष के बाद मित्र की पुत्री “जयनन्दिनी” जिसे मैं प्यार से “जय” बोलता हूँ, का फ़ोन आया। उसने मुझसे शीघ्र मिलने का अनुरोध किया। उसके स्वर से अनायास मुझे प्रतीत हुआ कि कुछ गंभीर समस्या है और अमंगल की आशंका भी हुई। मैने आश्वस्त किया कि मैं अतिशीघ्र उसके घर आकर मिलता हूँ, वो परेशान न हो, धैर्य रखे, जो भी समस्या होगी उसका निराकरण करने मे पूर्ण सहयोग करूँगा।

यथाशीघ्र जय के घर जाकर उसकी बात सुनी। ज्ञात हुआ कि पति-पत्नी के प्रेम का सागर सूख गया है और परस्पर इतनी कटुता उत्पन्न हो गई है कि एक छत के नीचे रहना दुष्कर है। बहुत आश्चर्य हुआ कि जिन्होंने जीवन भर एक दूसरे का सुख-दुख में साथ निभाने की कसमें खाई होंगीं, न जाने क्या-क्या आश्वासन दिये होंगे, कितनी प्रतिज्ञाएं की होंगीं, एक-दूसरे को पाने के लिये वर्षों अपने परिवारों से, समाज से निरन्तर संघर्ष किया, वो इतनी अल्प अवधि में कटुता व्याप्त वातावरण में, विवशतावश में जी रहे हैं और अलग जीवनयापन को छटपटा रहे हैं।

मैंने पूछा- यशस्वी (जय का पति) कहाँ हैं?
बताया कि आपके आने की सूचना मिलने पर अनावश्यक कार्य से चले गयें, सम्भवत: आपका सामना नहीं करना चाहते हैं।
मैंने कहा- कोई बात नहीं, अवकाश कि दिन जब यशस्वी घर पर हों, मुझे चुपचाप बता देना, मैं पुन: आ जाऊँगा।
एक दिन जय की सूचना पर, मैं प्रातःकाल उसके घर पहुँचा। यद्यपि दोनों की भाव-भंगिमा से तनाव, कष्ट एवं परस्पर विमुखता स्पष्ट परिलक्षित थी। तथापि हल्की-फुल्की वार्ता से वातावरण को अनुकूल बनाने की कोशिशों के मध्य,
मैंने कहा- मुझे अनुभव हो रहा है जैसे तुम दोनों मेरे अप्रत्याशित आगमन से ख़ुश नहीं हो और कष्ट में हो? दोनों ने ही चोरी पकड़ी जाने सदृश अपराधबोध की अनुभूति होते हुये, एक स्वर में कहा- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।

मैंने कहा- तुमको स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है, मैंने तुम्हारे जीवन्त एवं अथाह प्रेम को देख कर ही, तुम्हारे संघर्ष में साथ दिया था। आज तुम दोनों को देखकर किंचितमात्र भी नहीं लग रहा है कि तुम वहीं प्रेमी युगल हो।

वार्ता की रेल जब पटरी पर दौड़ी, तो यशस्वी ने तत्काल आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार के बाद कहा-मैं जय के साथ नहीं रह सकता, मुझे तलाक़ चाहिए।
यकायक हमारे मध्य सन्नाटा व्याप्त हो गया।
मैंने शान्त भाव से पूछा-जय से तुम्हारा रिश्ता क्या है ?
यशस्वी-मेरी पत्नी है।
मैंने कहा-फिर तो तुम्हारा तलाक़ नहीं हो सकता।
यशस्वी ने आवेश में पूछा-क्यों नहीं हो सकता ?
मैंने कहा-कि पति-पत्नी तो हिन्दू विवाह पद्धति से बनते हैं। तलाक़ तब सम्भव है, जब निकाह हुआ हो और निकाह के बाद बीवी और शौहर बनते हैं। अगर जय तुम्हारी बीवी होती तो मैं अवश्य तुम्हारा तलाक़ करा देता।
हिन्दू धर्म में तो तलाक़ शब्द का अस्तित्व ही नहीं है.
हिन्दू धर्म में विवाह सात जन्मों का संयोग होता है, इसीलिये विधिविधान से पूजन करने के उपरान्त ईश्वर के रूप में अग्नि को प्रत्यक्ष साक्षी मान कर पाणिग्रहण संस्कार किया जाता है। विवाह विच्छेद का प्रावधान ही नहीं है, इस धर्म में।

मैंने जय से कहा-अपनी शादी की वीडियो लेकर आओ।
वो अनमने भाव से गई और लेकर आई।
वीडियो में जब कन्यादान का चित्रण आया तो मैंने कहा- तुमने ध्यान से नहीं देखा और न ही समझने की कोशिश की।
जय ने पुन: उस दृश्य को दोहराया।
मैंने पूछा- कुछ समझे?
दोनों ने अबोध शिशु की भाँति नकारात्मक सिर हिलाया।
मैंने कहा- ध्यान से देखो और सोचो कि किसी भी ग्रंथ में या संस्कार में कभी तुमने पढ़ा या जाना है कि परिवार के वरिष्ठ जन अपने ही बच्चों के चरण स्पर्श करें?
दोनों ने कहा- नहीं।
मैने कहा-वेदों के अनुसार वर-वधू विष्णु-लक्ष्मी सदृश होते हैं, इसीलिये कन्यादान के समय परिजन अपने ही बच्चों को माँ लक्ष्मी एवं भगवान विष्णु रूप में पूजते हैं। हमारे धर्म में विवाह एक संस्कार है, बन्धन नहीं।
दोनों द्रवित हो गये।
मैंने समयानुकूल वातावरण को जीवन्त करने के लिये हास्य किया, कि जब विवाह के पश्चात आदिकाल से भगवान विष्णु माता लक्ष्मी से अलग नहीं हो पाये, तब तुम्हारा इस जीवन में अलग होना तो असम्भव ही है।

दोनों मुस्कुराने लगे।
कटुता की बर्फ भी पिघल गई।
वार्ता असीमित होती गई।
अपनी भूलों की स्वीकार्यता का दौर चलने लगा।
फिर क्या था, मेरी आवश्यकता समाप्त हो गई।
दोनों ने परस्पर सारी अज्ञानता का नाश कर दिया।
क्षमा माँगी और अश्रुधारा से अतीत को विस्मृत कर दिया।
मित्रो,
मैं नहीं जानता कि यह सब मैने अवचेतन मे संचित किसी कथा को सुन कर किया या तात्कालिक सोच द्वारा पर उचित किया न?

प्रस्तुतिः राम आदित्य शर्मा, आगरा