योगेन्द्र ने 1942 में लखनऊ में प्रथम वर्ष ‘संघ शिक्षा वर्ग’ का प्रशिक्षण लिया। 1945 में वे प्रचारक बने और गोरखपुर, प्रयाग, बरेली, बदायूँ, सीतापुर आदि स्थानों पर संघ कार्य किया। उनके मन में एक सुप्त कलाकार सदा मचलता रहता था। देश-विभाजन के समय उन्होंने एक प्रदर्शनी बनायी, जिसने भी इसे देखा, वह अपनी आँखें पोंछने को मजबूर हो गया। फिर तो ऐसी प्रदर्शिनियों का सिलसिला चल पड़ा। शिवाजी, धर्म गंगा, जनता की पुकार, जलता कश्मीर, संकट में गोमाता, 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा, विदेशी षड्यन्त्र, माँ की पुकार…आदि ने संवेदनशील मनों को झकझोर दिया। ‘भारत की विश्व को देन’ नामक प्रदर्शनी को विदेशों में भी प्रशंसा मिली।
संघ नेतृत्व ने योगेन्द्र की इस प्रतिभा को देखकर 1981 ई0 में ‘संस्कार भारती’ नामक संगठन का निर्माण कर उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। योगेन्द्र के अथक परिश्रम से यह आज कलाकारों की अग्रणी संस्था बन गयी है। अब तो इसकी शाखाएँ विश्व के अनेक देशों में स्थापित हो चुकी हैं। योगेन्द्र शुरू से ही बड़े कलाकारों के चक्कर में नहीं पड़े। उन्होंने नये लोगों को मंच दिया और धीरे-धीरे वे ही बड़े कलाकार बन गये। इस प्रकार उन्होंने कलाकारों की नयी सेना तैयार कर दी।
संस्कार भारती के राजेश पंडित ने बताया कि योगेन्द्र की सरलता एवं अहंकारशून्यता उनकी बड़ी विशेषता है। किसी प्रदर्शनी के निर्माण में वे आज भी एक साधारण मजदूर की तरह काम में जुट जाते हैं। जब अपनी खनकदार आवाज में वे किसी कार्यक्रम का ‘आँखों देखा हाल’ सुनाते हैं, तो लगता है, मानो आकाशवाणी से कोई बोल रहा है। उनका हस्तलेख मोतियों जैसा है। इसीलिए उनके पत्रों को लोग संभालकर रखते हैं। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की है कि योगेन्द्र ‘बाबा’ दीर्घायु रहकर इसी प्रकार कला के माध्यम से देशसेवा करते रहें।