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श्रीराम के धनुष के आकार का रामगढ़ का किला खो रहा अपनी आभा-स्वरूप

रामगढ़. मैं ही रामगढ़ का वह ऐतिहासिक किला हूं, जो कभी क्षेत्र के राजा के न्याय की कचहरी रहा तो कभी आजादी के दीवानों के लिए मुख्य स्थल साबित हुआ। मैंने ही सन 1947 में बंटवारे के समय अपनी बाहें फैलाकर लोगों को सुरक्षित अपनी गोद में समेटा, लेकिन उनकी पीढ़ी ही अब मेरी बाजू काट रही है। आज स्थिति यह है कि कस्बे के लोग गंदगी व कूड़े के ढेरों एवं मिट्टी के दोहन तथा अतिक्रमण से मेरा अस्तित्व खत्म करने पर उतारू है...। यह पीड़ा है श्रीराम के धनुष के आकार वाले रामगढ़ किले कि, जो इन दिनों अपनी आभा खो रहा है।

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  रामगढ़ का वह ऐतिहासिक किला

रामगढ़ का वह ऐतिहासिक किला

रामगढ़. मैं ही रामगढ़ का वह ऐतिहासिक किला हूं, जो कभी क्षेत्र के राजा के न्याय की कचहरी रहा तो कभी आजादी के दीवानों के लिए मुख्य स्थल साबित हुआ। मैंने ही सन 1947 में बंटवारे के समय अपनी बाहें फैलाकर लोगों को सुरक्षित अपनी गोद में समेटा, लेकिन उनकी पीढ़ी ही अब मेरी बाजू काट रही है। आज स्थिति यह है कि कस्बे के लोग गंदगी व कूड़े के ढेरों एवं मिट्टी के दोहन तथा अतिक्रमण से मेरा अस्तित्व खत्म करने पर उतारू है...। यह पीड़ा है श्रीराम के धनुष के आकार वाले रामगढ़ किले कि, जो इन दिनों अपनी आभा खो रहा है।

अलवर जिला मुख्यालय से करीब 24 किलोमीटर दूर स्थित रामगढ़ कस्बा धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है।कस्बे के ऐतिहासिक किले में मौजूद खाई की कभी डीग किले की गहरी खाई से तुलना की जाती थी, लेकिन अब यह केवल एक कहानी बनकर रह गई है। जिनसे नई पीढ़ी परिचित तक नहीं है। देखरेख के अभाव में रामगढ़ का ऐतिहासिक किला अपने आप में सैकड़ों राज दबाए बैठा है। वयोवृद्ध सेवानिवृत्त मास्टर रामबाबू गुप्ता, बंसी साहनी, एडवोकेट दिनेश शर्मा बंटी, सरबजीत सिंह, अशोक शर्मा, जवाहरलाल तनेजा सहित अन्य ग्रामीण बताते हैं कि अलवर रियासत के अंतर्गत रामगढ़ का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। रामगढ़ नामकरण से पूर्व इस इलाके को किसी और नाम से जाना जाता था। अलवर महाराज की ओर से भगवान श्रीराम रघुनाथजी की प्रतिमा को किले में पधरवाने के बाद से ही कस्बे की रामगढ़ के नाम से पहचान हुई। किले का निर्माण भगवान श्रीराम के धनुष की तरह कराया गया था। चारों ओर से परकोटे के साथ बुर्ज व किले के चारों ओर खाई का निर्माण भी उस समय हुआ था। किले में प्रवेश करने के बाद खाई के उत्तर दिशा में मात्र एक ही द्वार आज भी मौजूद है।

सबसे मजबूत रहा

ऐसा माना जाता है कि यह किला आसपास के इलाके के अन्य किलो के मुताबिक सबसे मजबूत किला रहा है। जिसके द्वार कई हाथियों के एक साथ वार करने पर भी जल्दी से नहीं टूटते थे। यही कारण है कि आजादी की अलख जगाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के लिए यह अपनी बैठक करने का उचित स्थान साबित हुआ था और आजादी के समय सैकड़ों लोगों को शरण भी दी। किले की मजबूती और भगवान रघुनाथजी में आस्था के कारण माना जाता है कि कभी किसी प्रकार की कोई हानि नहीं हुई।

कचहरी हो गई खंडहर

किले के महल में कचहरी अब खंडहर नुमा हो चुकी है। यहां कभी अलवर राजा जयसिंह सहित अन्य राजा आकर क्षेत्र के सेठ साहूकार व लंबरदारों से सलाह मशवरा करते एवं क्षेत्र की पैदावार सहित अन्य हालचाल पूछा करते थे। इसी के साथ कचहरी में न्याय दरबार भी लगा करता था। मात्र 5 दशक पूर्व तक किले के चारों ओर मौजूद भयानक गहरी खाई का अस्तित्व था, परंतु सन 1972 में आई भयानक बाढ़ के पानी में गहरी से गहरी खाई को मिट्टी से भर दिया। जिसके बाद ग्रामीणों ने खाई के चारों तरफ के परकोटे पर अतिक्रमण कर मकान बना लिए तो वही ग्राम पंचायत के तत्कालीन सरपंचों ने भी खाई व उसके आसपास के इलाके के साथ किले में मुख्य द्वार तक के पट्टे वितरित कर दिए। जिससे ग्रामीणों ने किले की मिट्टी से अपने मकानों का भराव कर किले के अस्तित्व को चारों ओर से खत्म करने पर उतारू हो गए। यहां रहने वाले लोगों ने अब किले में गंदगी व कूड़ा करकट डालना भी शुरू कर दिया है। मुख्य द्वार, कचहरी, सूरजपोल, उत्तरी पूर्वी, पूर्वी पोल कभी किले की शोभा बढ़ाते थे, परंतु अब अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं। अगर शीघ्र ही सार-संभाल नहीं किया गया तो रामगढ़ का किला केवल इतिहास बनकर रह जाएगा।

आस्था का केंद्र थी प्रभु श्रीराम की पालकी

किले में विराजमान भगवान श्रीराम रघुनाथजी की पालकी कस्बा सहित आसपास के क्षेत्र में धार्मिक दृष्टि का एक मुख्य केंद्र बिंदु थी। किले में मौजूद मंदिर की कई पीढयि़ों से पारीक परिवार द्वारा सार संभाल व देखरेख की जाती है। पुराने समय में खरबूजा एकादशी पर भीतरी किले के भव्य द्वार से भगवान राम की पालकी भी निकला करती थी जो कि कस्बे के मुख्य मार्गो से किले की खाई तक जाकर समाप्त होती थी। इस अवसर पर मेला भी भरता था, लेकिन खाई के अभाव और अतिक्रमण होने तथा प्रशासन की बेरुखी और आमजन में जागरूकता के अभाव का कारण पालकी निकलना बंद हो गई। जानकार बताते हैं कि भगवान की मूर्तियां बेशकीमती धातुओं से निर्मित थी, जिन पर सैकड़ों आभूषण से उनका श्रृंगार करते थे।