धमतरी

Bilai Mata In Dhamtari: कैसे पड़ा नाम ‘बिलाई माता’? जानें 250 साल पुराने विंध्यवासिनी मंदिर का रहस्यमयी इतिहास और भक्तों की गहरी मान्यता

Bilai Mata Mandir Dhamtari: शारदीय नवरात्र में धमतरी की आराध्य देवी बिलाई माता का रोज सोलह श्रृंगार किया जा रहा है। ज्योति कक्षों में 2397 ज्योत जगमग हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य प्रदेश सहित अमेरिका, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया के श्रद्धालु भी यहां ज्योत प्रज्ज्वलित कराते हैं।

3 min read
Sep 29, 2025
धमतरी में है बिलाई माता का दरबार (फोटो सोर्स- पत्रिका)

Bilai Mata In Dhamtari: शारदीय नवरात्र में धमतरी की आराध्य देवी बिलाई माता का रोज सोलह श्रृंगार किया जा रहा है। ज्योति कक्षों में 2397 ज्योत जगमग हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य प्रदेश सहित अमेरिका, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया के श्रद्धालु भी यहां ज्योत प्रज्ज्वलित कराते हैं। दर्शन के लिए सुबह-शाम भक्तों की भीड़ लग रही है। पुजारी पंडित अरूण तिवारी, महेश दुबे, अभिषेक शर्मा ने बताया कि बिलाई माता नवरात्र के पूरे 9 दिन अन्न का त्याग कर देती है। भक्त भले ही श्रद्धा वश अन्न भेंट करते हैं, लेकिन पुजारी माता को अन्न का भोग नहीं लगाते।

नवरात्र में दूध से बने पकवान, खीर, मलाई, फल, नैवेद्य का भोग लगाते हैं। विशेष रूप से नारियल पानी और अनार का जूस अर्पित करते हैं। दिन में 4 पहर आरती होती है। पहली आरती सुबह 4 बजे की जाती है। बिलाई माता मंदिर से कई खास परंपराएं जुड़ी है। सिर्फ बकरा बलि देने की परंपरा को बदला गया है। पूर्व में नवरात्र के अंतिम दिन 108 बकरों की बलि दी जाती थी।

ये भी पढ़ें

तीन तालाबों के किनारे बसा छत्तीसगढ़ का ये सिद्धपीठ, जहां 1970 से प्रज्ज्वलित हो रही है अखंड ज्योति, जानें इसका इतिहास

1938 से इस प्रथा को बंद किया गया। इसके बाद से बकरे की जगह रखिया की बलि दी जाती है। मंदिर का गर्भगृह अष्टकोणीय है। पूर्णाहुति नवमीं लगने से दो घंटे पूर्व दी जाती है। यदि नवमीं प्रात: 4 बजे से लग रही तो रात 2 बजे पूर्णाहुति दी जाती है। दोनों नवरात्र में विंध्यवासिनी मंदिर के पट बंद नहीं होते। सिर्फ परदा लगाते हैं।

Bilai Mata In Dhamtari: ऐसे पड़ा मां का नाम बिलाई माता

बिलाई माता (विंध्यवासिनी) का इतिहास 250 साल पुराना है। श्री विंध्यवासिनी बिलाई माता मंदिर ट्रस्ट के वर्तमान अध्यक्ष आनंद पवार ने बताया कि प्रथम ट्रस्टी आपा साहेब पवार ने बताया था कि पहले मंदिर की जगह बियाबान (घनघोर) जंगल था। लगभग 250 वर्ष पूर्व स्व. बापूराव पवार घोड़े में बैठकर इस जंगल की तरफ से निकले। अचानक घोड़े का पैर एक दिव्य पत्थर से टकरा गया। खून बहने लगा। तब घोड़े से उतरकर पत्थर को साइड करने का प्रयास किया गया, लेकिन वह दिव्य पत्थर जमीन के काफी अंदर तक था।

घर पहुंचने के बाद इसी दिन रात में स्व. बापूराव पवार को देवी द्वारा स्वप्न में कहा गया कि मेरे स्थान पर पूजा-अर्चना कर मंदिर का निर्माण किया जाए। घटना के कुछ दिन बाद स्व. बापूराव पवार के पुत्र वधु स्व. चंद्रभागा बाई पति दीवानजी पवार के द्वारा अपने गृहग्राम सटियारा से बड़े-बड़े पत्थर बैलगाड़ी से लाकर देवी मां के मंदिर का निर्माण कराया। उनके नाम से उसी समय का शिलालेख गर्भगृह की दीवार पर आज भी लगा हुआ है।

दिव्य पत्थर के प्राण-प्रतिष्ठा एवं मंदिर निर्माण के बाद उक्त दिव्य पत्थर धीरे-धीरे बढ़ते गया और देवी का सुंदर रूप धर लिया। बताया जाता है कि इस दिव्य पत्थर के चारो ओर हमेशा 8-10 बिल्लियां बैठी रहती थी। इसी के चलते मां का नाम बिलाई माता पड़ा। आज भी मंदिर में बिल्लियां घूमते रहती है।

परंपरा: नवमीं लगने के दो घंटे पूर्व होती है पूर्णाहुति

बिलाई माता मंदिर से कई खास परंपराएं जुड़ी हुई है। इसका निर्वहन आज भी हो रहा है। पूर्णाहुति नवमीं लगने से दो घंटे पूर्व दी जाती है। यदि नवमीं प्रात: 4 बजे से लग रही तो रात 2 बजे पूर्णाहुति दी जाती है। नगर की अधिष्ठात्री देवी होने से लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। रविवार को सप्तमी के दिन भारी संया में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचे। 30 सितंबर को शाम 4.30 बजे से शाम 6.08 बजे तक हवन-पूजन का कार्यक्रम होगा। इसके बाद नौ कन्या भोज होगा। गर्भगृह में स्थापित ज्योत को बावली में विसर्जित किया जाएगा।

संयोग: मंदिर परिसर में नवरात्र लगने के 15 मिनट पूर्व 4 बिल्लियों का जन्म

बिलाई माता मंदिर में नवरात्र लगने के 15 मिनट पूर्व रविवार रात 11.45 बजे यहां एक बिल्ली ने 4 बच्चों को जन्म दी है। बिल्ली के बच्चों को पुराना प्याऊ के पास बोरे के ऊपर सुरक्षित रखा गया है। ट्रस्ट के लोग व भक्त इसे बड़ा संयोग भी मान रहे। वैसे मंदिर में बिल्लियों का आना-जाना लगा रहता है।

बदलाव: 35 साल से बंद बावली पुनर्जीवित, पंच मुखी शंख किया स्थापित

बिलाई माता मंदिर में प्राचीन बावली थी। 35 वर्षों से बावली बंद थी। 5 जून को पूजा-अर्चना कर इसे खोला गया। विशेष पूजा के बाद इसे पुनर्जीवित किया गया। बावली के नीचे प्राकृतिक जल स्त्रोत आज भी विद्यमान है। बावली के ऊपरी हिस्से को टफन ग्लास, टेराकोटा ईंट व टाइल्स से मजबूत किया गया है। सिरे पर पंचमुखी शंख भी स्थापित किया गया है। बावली के नए स्वरूप को देखकर भक्त भी प्रफुल्लित हो रहे।

ये भी पढ़ें

Navratri special: 45 साल पहले बना सतबहिनिया मंदिर, मां दुर्गा संग सात महुआ पेड़ों की पूजा से पूरी होती है मनोकामना, जानें इतिहास

Published on:
29 Sept 2025 11:35 am
Also Read
View All

अगली खबर