
धर्मनगरी का मां राजराजेश्वरी महाकाली मंदिर (फोटो सोर्स- Patrika)
Navratri Special: धर्मनगरी कवर्धा की आस्था का केंद्र मां राजराजेश्वरी महाकाली मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि इसका इतिहास भी रहस्यमयी और प्राचीन धरोहर से जुड़ा है। यहां विराजमान माता की प्रतिमा लगभग 11वीं शताब्दी की मानी जाती है, जो इसे नगर के प्राचीनतम शक्तिपीठों में विशेष स्थान दिलाती है।
मां राजराजेश्वरी मंदिर में मां महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती तीनों महाशक्तियां एक साथ विराजमान हैं। यह मंदिर शक्ति, समृद्धि और विद्या का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है। स्थानीय श्रद्धालु मानते हैं कि यहां मां की आराधना से जीवन में शक्ति, लक्ष्मी और ज्ञान तीनों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
मंदिर में स्थापित मां की प्रतिमा का रहस्य आज भी अनसुलझा है। मूर्ति की प्राचीनता 11वीं शताब्दी की मानी जाती है, लेकिन मंदिर में यह प्रतिमा कब और कैसे प्रतिष्ठित हुई, इसका कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बुजुर्ग बताते हैं कि 1970 के दशक से यहां सामूहिक रूप से ज्योति कलश प्रज्ज्वलित किए जाते रहे हैं। इससे पहले मां की मूर्ति वर्तमान मंदिर से सटे पूर्व दिशा में एक मड़पी जैसे छोटे से स्थान में विराजित थी।
पहले खपरैल के छप्पर वाले मकान में मंदिर था, जिसे बाद में स्थानीय श्रद्धालुओं ने पक्का बनाया। सन् 1955-56 में तालाब की खुदाई के समय तालाब के मध्य में तीन मूर्तियां व तीन टुकड़ाें में शिलालेख मिला था, जिसमें अष्ट भुजा मां दुर्गा, शिवशक्ति व अनेक मूर्तियां वाली रिजमान देवी की प्रतिमा मिली थी, जिसे मंदिर परिसर में रखा गया है।
माता का दरबार ठाकुरपारा क्षेत्र में तीन तालाबों के एक तट पर स्थित है। तालाबों के शांत वातावरण और मंदिर की दिव्य आभा श्रद्धालुओं के मन को एक अलग आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देती है। नवरात्रि के अवसर पर यहां विशेष पूजा-अर्चना और भक्ति कार्यक्रम आयोजित होते हैं, जिनमें दूर-दराज से श्रद्धालु शामिल होते हैं।
स्थानीय बुजुर्ग समय-समय पर बताते हैं कि मां की महिमा का अनुभव उन्होंने अपने जीवन में अनेक बार किया है। उनके अनुसार, मंदिर में मन से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती। यही कारण है कि दशकों से यहां नवरात्रि में ज्योति कलश और भक्तिमय आयोजन होते आ रहे हैं।
मां राजराजेश्वरी महाकाली मंदिर कवर्धा का प्राचीनतम शक्तिपीठ माना जाता है। यहां विराजमान मूर्ति न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी अमूल्य है।
सिद्धपीठ राज राजेश्वरी के रूप में स्थापित मां महाकाली, महालक्ष्मी व महा सरस्वती के अंश आज भी उक्त मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। विग्रह में मां काली के दाहिने हाथ में त्रिशूल, बाएं हाथ में ही कमंडलु और बाएं हाथ के नीचे अक्षर माला है। मंदिर के गर्भ गृह के रहस्य शोध का विषय बना हुआ है। मंदिर में पूर्व में वाममार्गीय पूजा प्रसिद्ध था। स्व. पं. अर्जुन प्रसाद शर्मा आचार्य का कार्य जब सहाला, तब से यहां दक्षिणमार्गीय पूजा आरंभ हुआ, जो आज भी संचालित है।
प्रचलित किवदंतियों के मुताबिक पहले तालाब के मध्य में ही मां की मंदिर रही होगी, जिसे बाद में तालाब के किनारे स्थापित किया गया। बाद में मां की पूजा के लिए समिति का निर्माण किया गया, जिसके प्रथम अध्यक्ष स्व. दल्ला भाई देसाई रहे। स्व. पं. मोहन शर्मा के पूजन काल में लगभग 60 के दशक में पहली समिति का गठन किया गया व वर्ष 1973-74 में ज्योति कलश प्रज्जवलन प्रारंभ किया गया था।
Published on:
28 Sept 2025 01:49 pm
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