Dharmendra Untold Story: धर्मेंद्र जब फिल्मों में आने की कोशिशें कर रहे थे तो उनके पिता इसके खिलाफ थे। उन्होंने बताया था, ‘‘लेकिन मेरी माताजी को मुझ पर भरोसा था कि मैं जरूर कुछ कर जाऊंगा। पढ़िए दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र से जुड़े किस्से।
Dharmendra Untold Story: 2011 की बात है। दिल्ली में एक टी.वी. शो की प्रैस-कॉन्फ्रेंस थी जिसके जजों में धर्मेंद्र भी शामिल थे। यहां धरम जी से मेरी पहली बार मुलाकात हुई। हालांकि, इससे पहले उनके परिवार के सदस्यों-सनी देओल, बॉबी देओल, हेमा मालिनी, ईशा देओल आदि से कई बार मिलना हो चुका था। उन सभी को मैं यह बता चुका था कि मैं कई साल तक उस फिल्म पत्रिका ‘चित्रलेखा’ से जुड़ा रहा हूं जिसके संस्थापक-संपादक स्वर्गीय राज केसरी ने किसी जमाने में धर्मेंद्र पर एक डॉक्यूमैंट्री ‘हमारा धरम’ नाम से बनाई थी जो सिनेमाघरों में धरम जी की फिल्मों से पहले दिखाई जाती थी। इस मुलाकात में मौका मिलते ही मैंने धरम जी से राज केसरी जी व ‘हमारा धरम’ का जिक्र किया तो न सिर्फ बहुत खुश हुए, बल्कि भावुक भी हो गए। काफी देर तक मेरा हाथ अपने हाथों में लिए धरम जी मुझ से उस फिल्म और केसरी जी के परिवार के बारे में पूछताछ करते रहे। उन्होंने उस फिल्म का कोई प्रिंट उपलब्ध करवाने को भी कहा और अपना पर्सनल फोन नंबर भी दिया। इस बातचीत में धर्मेंद्र ने काफी खुल कर बातें की थीं।
धर्मेंद्र जब फिल्मों में आने की कोशिशें कर रहे थे तो उनके पिता इसके खिलाफ थे। उन्होंने बताया था, ‘‘लेकिन मेरी माताजी को मुझ पर भरोसा था कि मैं जरूर कुछ कर जाऊंगा। मेरे पिताजी मुझे इसलिए रोकते थे क्योंकि इस लाइन में कोई निश्चित भविष्य तो था नहीं। उन्हें यह डर था कि अगर मैं नाकाम रहा तो कहीं हताश न हो जाऊं। पर मेरे अंदर था कि मैं डूबूंगा नहीं, जिनके अंदर यह हौसला होता है कि मैं फिर से ऊपर निकल आऊंगा, वही ऊपर आ पाते हैं और यह बात मैं भगवान से डर कर कह रहा हूं।’’
किसी भी अन्य कलाकार की तरह धर्मेंद्र हमेशा खुद को निखारने में लगे रहते थे। उनका कहना था, ‘‘यह अहसास तो है कि बहुत कुछ किया और बहुत अच्छा भी किया। लेकिन एक कलाकार कभी अपने-आप से संतुष्ट नहीं हो सकता। हमेशा यह अहसास भी मेरे मन में रहता है कि मैंने जो किया वह इतना अच्छा नहीं किया जितना मैं कर सकता था। तसल्ली-सी नहीं होती है। लगता है कि इससे और ज्यादा अच्छा मैं कर सकता था। बहुत-सी अपनी खामियां याद करता हूं, बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो नहीं हो पाईं, वे जेहन में आती हैं। अच्छी बीती है जिंदगी अब तक लेकिन लगता है कि इससे और अच्छी हो सकती थी।’’
धरम जी एक अच्छे लेखक भी थे। शायरी वह बहुत अच्छी किया करते थे। वह खुद पर एक किताब भी लिख रहे थे। उन्होंने बताया था, ‘‘अपनी लेखन क्षमता का इस्तेमाल मैंने कई बार किया है। लोगों को यह बात मालूम नहीं है पर मैंने अपनी कई फिल्मों के सीन खुद ही लिखे हैं। रही किताब की बात, तो वह पता नहीं कब पूरी होगी।’’
अपने लंबे सिनेमाई सफर के बारे में धर्मेंद्र का कहना था, ‘‘हसरत थी परवाज लूं, ले के सब को मिलूं, खुदा ने यह चेहरा पढ़ा, सुनी दिल की मेरे सदा, हो गया रोशन रास्ता, मैं जानिबे-मंजिल चल पड़ा, जिससे भी मैं जा मिला, वह सीने से मेरे आ लगा, हो गए बुलंद हौसले, होते गए तय फासले, उमड़ती लाखों चाहतें, बन के दुआएं बरसने लगीं, मैं बस चलता ही गया, इक कारवां साथ मेरे बनता गया।’’
‘‘मुझे ‘प्रतिज्ञा’ अच्छी लगी थी, ‘सत्यकाम’ बहुत अच्छी लगी थी, ‘चुपके चुपके’ मुझे बहुत पसंद है, ‘शोले’ तो खैर सबने ही पसंद की, ‘सीता और गीता’ में मेरा हालांकि, काफी छोटा-सा रोल था लेकिन यह मुझे काफी अच्छा लगा था। ‘हथियार’ और ‘गजब’ में भी मुझे अपना काम पसंद आया था। बाकी तो मैं अपनी खूबियों में भी खामियां तलाशता रहता हूं।’’
‘‘मुझे लगता है कि हृषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय, दुलाल गुहा, असित सेन जैसे निर्देशकों ने मुझसे काफी अच्छा काम करवाया। मैंने जब बिमल दा की ‘बंदिनी’ देखी तो मैं हैरान रह गया था कि क्या यह सचमुच मैं ही हूं। लोगों ने भी मेरी तारीफ की कि मैं अपने किरदार को ‘अंडरप्ले’ किया है जबकि उस समय मैं इस बात का मतलब ही नहीं समझता था। मैं तो बस वही कर रहा था जो बिमल दा मुझ से करने को कह रहे थे।’’
धरम जी से जब यह सवाल पूछा तो उन्होंने बिना एक पल गंवाए कहा था, ‘‘मेरे अंदर जो आत्मा है उसे इंसानियत से बड़ी मोहब्बत है, यहीं मेरी सबसे बड़ी शक्ति है। मैं अपने भगवान को यहीं ढूंढ लेता हूं। आपने देखा होगा कि मैं सभी धर्मों की इज्जत करता हूं पर मैं मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे वगैरह में जाता नहीं हूं। मुझे लोगों में, आप सब में ही भगवान, खुदा नजर आ जाता है। आप दूसरों की सेवा करके देखिए, बहुत शांति मिलेगी। मैंने एक बार लिखा था-‘परवाह करके देख प्यार आ ही जाएगा, दुश्मन भी बनके यार आ ही जाएगा।’ इंसान अगर इंसान से प्यार करले तो उसे किसी भगवान या खुदा की जरूरत नहीं है। आप करके देखो अपने घर में, पड़ोस में, आपको लगेगा कि यहां भगवान का वास हो गया है। प्यार से बड़ी इबादत कोई नहीं है।’’
‘‘मैं यह सोच कर राजनीति में गया था कि लोगों की सेवा करने का बड़ा अच्छा बहाना मुझे ऊपर वाले ने दिया है और मैंने अपनी तरफ से जितना हो सका अपने क्षेत्र में काम किया भी। पर कुछ लोग थे जो यह नहीं चाहते कि सेवा निस्वार्थ भावना से की जाए। उनके अपने स्वार्थ थे और मैं उसका हिस्सा नहीं बन सकता था। कई बार ऐसा भी हुआ कि मेरे किसी काम में विरोधी पार्टी के लोगों ने मेरा साथ दिया जबकि मेरी ही पार्टी के लोग मेरी टांग खींचने में लगे रहे। ऐसे माहौल में रह पाना मेरे लिए मुश्किल था।
धरम जी से जब मैंने यह सवाल पूछा कि वह क्या चाहते हैं कि दुनिया उन्हें किस रूप में याद रखे, आखिर धर्मेंद्र हैं क्या? तो वह भावुक हो उठे थे। कुछ देर सोच कर उन्होंने जवाब दिया था, ‘‘धर्मेंद्र क्या है, चाहता क्या है, इस पर मैंने काफी पहले एक शेर कहा था, वही कहता हूं-
‘मन्नतों की मुराद, दुआओं की देन, मालिक की मेहर का इक वरदान हूं मैं, महान मां की ममता, अजीम बाप की शफकत का अजीमोशान इक अहसान हूं मैं, इंसानियत का पुजारी, छोटों का लाड़-प्यार, बड़ों का आदर-सम्मान हूं मैं, दुनिया सारी बन जाए इक कुनबा, एकता की हसरतों का अरमान हूं मैं, नेकी मेरी शक्ति है, किसी बद से कभी डरता नहीं, ऐसा आत्मसम्मान हूं मैं, मोहब्बत है खुदा, खुदा है मोहब्बत, खुदा की मोहब्बत का इक फरमान हूं मैं, प्यार-मोहब्बत आपकी, सींचती है जज्बात को मेरे, इसीलिए आज भी जवान हूं मैं, खता अगर हो जाए, बख्श देना यारों, गलतियों का पुतला, आखिर इक इंसान हूं मैं।’’
(1993 से फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय दीपक दुआ सर्वश्रेष्ठ फिल्म समीक्षक के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं)