Diwali Special : गुलाबी शहर जयपुर की दिवाली, ऐतिहासिक रोशनी व भव्य आतिशबाजी देखने के लिए देश-प्रदेश के तत्कालीन राजा-महाराजाओं के साथ ब्रिटिश शासक भी आते थे। पढ़ें जयपुर में कैसे मनाई जाती थी दिवाली।
Diwali Special : गुलाबी शहर जयपुर की दिवाली तीन सदियों से देश-दुनिया के लोगों को आकर्षित कर रही है। यहां की ऐतिहासिक रोशनी व भव्य आतिशबाजी के साथ मार्गपाली के जुलूस को देखने के लिए देश-प्रदेश के तत्कालीन राजा-महाराजाओं के साथ ब्रिटिश शासक भी यहां आते थे। तब नाहरगढ़ किला, आमेर किला, जयगढ़ तथा अल्बर्ट हॉल के साथ छोटी-बड़ी चौपड़ पर आतिशबाजी होती थी।
दूसरे दिन लवाजमे के साथ त्रिपोलिया में मार्गपाली का जुलूस निकलता था। इसमें सबसे आगे निशान हाथी, पचरंगा ध्वज लिए हाथी शामिल होता था। लवाजमे के साथ घोड़े, ऊंट, रथ शामिल होते थे। लोग चांदी के बड़े पंखे लेकर चलते थे। रथ में सीतारामजी के विग्रह विराजमान होते थे। महिमरतब निशान और हाथी के इन्द्र विमान भी शामिल होते थे। जुलूस बड़ी चौपड़ पहुंचकर वापस सिटी पैलेस आ जाता था। यहां पहुंचने पर नजर उतारी जाती थी।
जयपुर फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष सियाशरण लश्करी का कहना है कि 18वीं शताब्दी में मार्गपाली का जुलूस शुरू हुआ। त्रिपोलिया गेट के सामने बरामदे पर वीआइपी लोगों को बैठने की अनुमति होती थी। लश्करी ने बताया कि यह जुलूस साल 1934 तक निकला।
शहर में कभी दीपकों की रोशनी हुआ करती थी। बाद में रोशनी में बल्बों का इस्तेमाल होने लगा। अब बाजारों में सामूहिक सजावट होने लगी है। परकोटे के साथ ही अब बाहरी बाजार भी सजने लगे हैं।
पहले दिवाली की रात को जयगढ़ स्थित काल भैरव की पूरे विधि विधान से पूजा व तांत्रिक अनुष्ठान हुआ करता था। काल भैरव को खजाने का मालिक माना जाता रहा है। इन्हें चमत्कारिक भैरव भी माना जाता है। जानकारों का कहना है कि पहले आतिशबाजी इतनी भव्य होती थी कि एक बार नाहरगढ़ किले के नीचे पहाड़ी पर आतिशबाजी से शुभ दिवाली को दर्शाया गया। इसके लिए शोरगरों ने कई दिनों तक तैयारी की थी। लोगों ने अपने घर की छतों, बाजार और चौपड़ से ही इस नजारे को देखा था। उस दौर में यह दृश्य वाकई अद्भुत था। शोरगरों की इस कला के बदले में उन्हें इनाम भी मिला था।
इतिहासकारों का कहना है कि रियासत काल में अलग-अलग राजाओं के दौर में दिवाली पर पहले टकसाल के जोशी लक्ष्मीजी के साथ सरस्वतीजी की पूजा करते थे। कई विद्वान यह पूजा संपन्न कराते थे। पूजन में दरबार के लोगों के साथ ही शहर के प्रबुद्धजन भी शामिल होते थे। पूजा करने के बाद प्रसाद के रूप में लड्डू बांटा करते थे।