सम्मेलन के दौरान जब किसी आयोजक या समाज के सदस्य को आर्थिक मदद की जरूरत होती है तो किन्नर अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार मायरे में सहयोग करते हैं।
किन्नर समाज के महासम्मेलनों में सिर्फ रंग-बिरंगे परिधान, नाच-गाने और तालियों की गूंज ही नहीं होती है, यहां रिश्तों की एक अलग ही परिभाषा देखने को मिलती है। सम्मेलनों में किन्नर ‘मायरा’ (भात) भरने की परंपरा निभाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी परिवार में मामा अपनी भांजी की शादी में मायरा भरता है। फर्क बस इतना है कि यहां यह मायरा रिश्तों की भावनात्मक डोर और सहयोग की मिसाल बन गया है।
सम्मेलन के दौरान जब किसी आयोजक या समाज के सदस्य को आर्थिक मदद की जरूरत होती है तो किन्नर अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार मायरे में सहयोग करते हैं। यह न कोई औपचारिक रस्म होती है, न दिखावे की बात, केवल दिल से निभाया जाने वाला रिश्ता होता है। जिसमें किन्नर अपने साथी, गुरु या चेला के आयोजन में मायरा भरकर आर्थिक सहारा देते हैं जिससे किसी पर कार्यक्रम का खर्च नहीं पड़े। देशभर में आयोजित होने वाले सम्मेलनों में किन्नर एक-दूसरे का दिल खोलकर सहयोग करते हैं।
नागौर में आयोजित हो रहे अखिल भारतीय किन्नर महासम्मेलन में भी मायरे की रस्म निभाई गई। गौरतलब है कि ‘मायरा’ राजस्थान की एक सामाजिक परंपरा है, जिसमें भाई अपनी बहन के और पिता अपनी बेटी के बेटे-बेटी की शादी में मायरा भरकर आर्थिक योगदान देते हैं। किन्नर समाज ने इस परंपरा को अपनी सामाजिक एकता और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक बना लिया है। सम्मेलन में जब किसी सदस्य पर आर्थिक जिम्मेदारी होती है, तो अन्य किन्नर उसके मायरा भरकर मदद करते हैं।
फरीदाबाद से आई गादीपति राखी बाई ने बताया कि जब किसी का मायरा भरते हैं तो दिल से निभाते हैं। यह हमारे समाज में अपनापन दिखाने का तरीका है। कोई अकेला नहीं है, सब एक-दूसरे के सहारा हैं। जयपुर से आई एक किन्नर ने कहा, ‘किन्नर समाज में कोई अकेला नहीं रहता। किसी के पास जिम्मेदारी होती है, तो सब साथ खड़े होते हैं। मायरा एकजुटता और अपनत्व का प्रतीक है।’