Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के एक जिला जज के निलंबन मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि सामान्यत: न्यायिक आदेशों के आधार पर जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन यदि आदेश बेईमानी या बाहरी दबाव से दिए गए हों तो अनुशासनात्मक कार्रवाई से इनकार नहीं किया जा सकता।
Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने 18 दिसंबर को एक मामले की सुनवाई करने के दैरान महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन को लेकर एक अहम सवाल उठाते हुए कहा है कि सामान्य परिस्थितियों में किसी न्यायाधीश के खिलाफ केवल न्यायिक आदेशों के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन साबित हो जाए कि कोई आदेश बेईमानी या किसी बाहरी दबाव के कारण दिया गया है तो ऐसे मामले में अनुशासनात्मक कार्रवाई से इनकार नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं कोर्ट ने नहीं कोर्ट ने यह भी पूछा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यायिक आदेश से करोड़ों की वसूली प्रभावित हो रही थी। बता दें कि मध्य प्रदेश के एक जिला जज को सेवानिवृत्ति से 11 दिन पहले निलंबित कर दिया गया था, इस निलंबन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। इसी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की है।
मध्य प्रदेश के जिला जज द्वारा अपनी निलंबन आदेश को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई चीफ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जॉयमल्या बागची और जस्टिस विपुल पंचोली की पीठ कर रही थी। याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट विपिन सांघी ने दलील दी कि संबंधित न्यायिक अधिकारी एक ईमानदार और प्रतिष्ठित जज रहे हैं। विपिन सांघी खुद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रह चुके हैं। उन्होंने बताया कि उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) हमेशा उत्कृष्ट रही है, इसके बावजूद उन्हें सेवानिवृत्ति से कुछ दिन पहले निलंबित कर दिया गया। सांघी ने यह भी कहा कि निलंबन आदेश में कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है। उन्होंने मीडिया रिपोर्टों का हवाला देते हुए दावा किया कि यह कार्रवाई जज द्वारा दिए गए दो न्यायिक आदेशों के आधार पर की गई है। उन्होंने कहा कि किसी न्यायिक आदेश के लिए जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, क्योंकि यदि कोई आदेश गलत है तो उसका सुधार अपीलीय मंच पर किया जा सकता है।
सीनियर एडवोकेट विपिन सांघी की बात सुनते ही चीफ जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी की और कहा कि जजों के केवल आदेश गलत होने के आधार पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, लेकिन ये साबित हो जाए कि न्यायाधीश के द्वारा दिए गए आदेश किसी बाहरी दबाव या बेईमानी के नीयत से दी गई है तो उस पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए। सीजेआई ने यह भी कहा कि बीते कुछ सालों में देखा गया है कि जज जब रिटायर होने के करीब होने के करीब होते हैं तब ज्यादा प्रभावशाली वाले आदेश पारित करने लगते हैं। इतना ही नहीं पीठ ने जिस आदेश को पारित करने के बाद उनका निलंबन हुआ था, वह आदेश किस प्रकार के थे। इसका जवाब देते हुए निलंबित जज के वकील सांघी ने कहा कि आदेश खनन गतिविधियों से जुड़ी रॉयल्टी और पेनल्टी की वसूली पर रोक से संबंधित थे।
कोर्ट में सीनियर वकील सांघा ने जब पारित आदेश के प्रवृति के बारे में बताया तो फिर सीजेआई सूर्यकांत ने सवाल किया कि कही ऐसा तो नहीं था कि इन आदेशों की वजह से करोड़ों की वसूली प्रभावित हो रही थी। इस जवाब देते हुए वकील सांघा ने कहा कि इस संंबंध में अभी तक कोई रिकार्ड नहीं पाया गया है और उन्होंने स्वयं आदेशों का विस्तृत अध्ययन नहीं किया है। जिससे साबित होता है कि उन पर किसी प्रकार का बाहरी दबाव नहीं था। वहीं, सीजेआई ने फिर सवाल करते हुए कहा कि क्या ऐसे मामलों में राजस्व विभाग को नोटिस जारी किया गया था। इस पर सांघी ने कहा कि राज्य सरकार को सुनवाई का अवसर देने के बाद ही अंतरिम आदेश पारित किए गए थे।
गौरतलब है कि जिस जिला जज के मामले में सुनवाई की जा रही थी वह 30 नवंबर 2025 को रिटायर होने वाले थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर के आदेश के बाद मध्य प्रदेश के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ा दी गई, जिससे उनका कार्यकाल 30 नवंबर 2026 तक बढ़ गया। इसके बावजूद उनका निलंबन आदेश 19 नवंबर को ही जारी कर दिया गया था। फिलहाल चीफ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जॉयमल्या बागची और जस्टिस विपुल पंचोली की पीठ ने निलंबन आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया है। साथ ही कोर्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने अपने निलंबन के कारण जानने के लिए हाईकोर्ट में सूचना का अधिकार (RTI) के तहत आवेदन दिया। इस दौरान कोर्ट ने यह भी कहा कि उनके अनुभव के अधिकारी से ऐसी प्रक्रिया की अपेक्षा नहीं की जाती और उन्हें सक्षम प्राधिकारी के समक्ष प्रतिवेदन देना चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि याचिकाकर्ता हाईकोर्ट के समक्ष प्रतिनिधित्व करता तो उसे निलंबन के कारण बताए जा सकते थे या औपचारिक रूप से अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जा सकती थी। हालांकि, पीठ ने याचिकाकर्ता को यह स्वतंत्रता दी कि वह हाईकोर्ट में एक विस्तृत प्रतिवेदन दाखिल कर निलंबन आदेश वापस लेने या अन्य वैधानिक राहत की मांग कर सकता है। हाईकोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह ऐसे प्रतिवेदन पर यथाशीघ्र, अधिकतम दो सप्ताह के भीतर निर्णय लें। आदेश सुनाए जाने के बाद सीनियर एडवोकेट सांघी ने अनुरोध किया कि याचिकाकर्ता को बहाल कर किसी अन्य स्थान पर तैनात किया जाए। इस पर चीफ जस्टिस ने टिप्पणी की कि जब याचिकाकर्ता ने विवादित आदेश पारित किए तब उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि रिटायर की आयु बढ़ाई जाएगी।