Fish Farming: बिलासपुर में मत्स्य पालन बना आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्थिरता का जरिया। आधुनिक तकनीकों से गांव-गांव में जल आधारित आजीविका को मिली नई दिशा।
छत्तीसगढ़ की माटी ने हमेशा मेहनतकश हाथों को समृद्धि की राह दिखाई है। इन्हीं में से एक है मत्स्य पालन, जिसने बिलासपुर जिले में न सिर्फ़ जल संसाधनों का बेहतर उपयोग कराया, बल्कि हजारों परिवारों को आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्थिरता की नई दिशा दी। राज्य के रजत जयंती वर्ष 2025 में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि— “तालाबों में तैरती मछलियाँ अब समृद्धि की पहचान बन चुकी हैं।”
पारंपरिक मछली पालन से लेकर हाईटेक फिश मार्केट और बायोफ्लॉक तकनीक तक, बिलासपुर ने बीते 25 वर्षों में ऐसा सफर तय किया है जिसने इसे छत्तीसगढ़ के मत्स्य पालन का अग्रणी जिला बना दिया है। यह कहानी केवल विकास की नहीं, बल्कि गांव-गांव में आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करने की भी है।
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छत्तीसगढ़ राज्य का सिल्वर जुबली सेलिब्रेशन, 2025, इस खास साल में राज्य के पूरे विकास की शानदार गाथा को दिखाता है। इन 25 सालों में राज्य के सभी डिपार्टमेंट ने पब्लिक वेलफेयर और सोशल अपलिफ्टमेंट में बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं। इनमें बिलासपुर जिले का फिशरीज डिपार्टमेंट एक मिसाल बनकर उभरा है, जिसने पानी के सोर्स के ज़रिए हर गांव में रोजी-रोटी, आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्थिरता की मजबूत नींव रखी है।
वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बना, तो बिलासपुर ज़िले में मछली पालन का काम ज़्यादातर पुराने तरीकों तक ही सीमित था। गांव के इलाकों में मछली पालन को दूसरी रोज़ी-रोटी के तौर पर देखा जाता था। मछली पालन के लिए सिर्फ़ 3,333 तालाब लीज़ पर दिए गए थे, और मछली का प्रोडक्शन 21,120 मीट्रिक टन था। पिछले 25 सालों में, फिशरीज़ डिपार्टमेंट, बिलासपुर ने प्लान्ड कोशिशों और इनोवेशन से इस सेक्टर को एक नई दिशा दी है।
आज, ज़िले में मछली पालन के लिए 4,946 तालाब इस्तेमाल हो रहे हैं। लीज़ पर दिया गया पानी का एरिया 5,679 हेक्टेयर से बढ़कर 10,960 हेक्टेयर हो गया है। गांव के तालाबों की संख्या 227 से बढ़कर 4,884 हो गई है। इस बढ़ोतरी का सबसे ज़्यादा असर मछली प्रोडक्शन पर पड़ा है, जो अब 48,488 मीट्रिक टन तक पहुंच गया है।
यह सिर्फ़ स्टैटिस्टिकल प्रोग्रेस नहीं है, बल्कि हज़ारों मछुआरे परिवारों की खुशहाली का इंडिकेटर है, जिनकी ज़िंदगी इन स्कीमों से बेहतर हुई है। ज़िले में मछली पालन को साइंटिफिक और कमर्शियल नज़रिए से डेवलप करने के लिए कई नए तरीके अपनाए गए हैं।
इनमें खास हैं प्लैंकटन ग्रोअर टेक्नोलॉजी (810 यूनिट), श्रिम्प फार्मिंग यूनिट (517), केज कल्चर यूनिट (436), बायोफ्लोक और पॉन्ड लाइनर तरीके, जिनसे प्रोडक्शन की क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों में सुधार हुआ है। इन मॉडर्न तरीकों ने खास तौर पर छोटे किसानों और युवाओं को अट्रैक्ट किया है, जो अब मछली पालन को एक फ़ायदेमंद काम के तौर पर देख रहे हैं।
मत्स्य पालन विभाग ने यह सुनिश्चित किया कि योजनाओं का लाभ हर मछुआरे तक पहुँचे। आज जिले में 8 हजार 980 से अधिक हितग्राही बीमा सुरक्षा और बचत सह राहत योजना जैसी योजनाओं से लाभान्वित हो चुके हैं। साथ ही किसान क्रेडिट कार्ड योजना के माध्यम से वित्तीय सहायता की पहुँच को भी सुलभ बनाया गया है।
2016 में, छत्तीसगढ़ का पहला हाई-टेक मछली बाज़ार तोरवा इलाके में नेशनल फिशरीज़ डेवलपमेंट बोर्ड की मदद से ₹1 करोड़ की लागत से बनाया गया था। इसमें 15 होलसेल दुकानें, 27 रिटेल दुकानें, एक आइस प्लांट और ज़िंदा मछलियों की बिक्री जैसी मॉडर्न सुविधाएँ हैं। यह बाज़ार न सिर्फ़ एक बिज़नेस हब बन गया है, बल्कि मछली बेचने वालों के लिए एक अच्छा प्लेटफ़ॉर्म भी देता है।
पानी के पुराने सोर्स के साथ-साथ नदी पर आधारित मछली पालन को भी बढ़ावा दिया गया है। शिवनाथ नदी के जोंधरा एनीकट में 300 हेक्टेयर पानी का एरिया मछुआरों की एक कोऑपरेटिव को 10 साल के लिए लीज़ पर दिया गया है, जिससे ऑर्गनाइज़्ड मछली प्रोडक्शन को बढ़ावा मिला है।
Fish Farming: कोटा डेवलपमेंट ब्लॉक के भैसाझार गांव के रहने वाले इग्नेश मिंज ने दिखाया है कि टेक्नोलॉजी और कड़ी मेहनत को मिलाकर कैसे अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। उन्होंने फेज फिश फार्मिंग में हर साल 55 मीट्रिक टन का प्रोडक्शन हासिल किया है। उन्हें प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत एक फिश ट्रांसपोर्ट गाड़ी भी दी गई, जिसे डिप्टी चीफ मिनिस्टर अरुण साव ने बांटा।
जिले ने फिश फार्मिंग सेक्टर में अपनी मजबूत पहचान बनाई है, जिससे इसे छत्तीसगढ़ का लीडिंग जिला होने का गौरव मिला है। यह सिर्फ स्कीमों को लागू करने का मामला नहीं है, बल्कि पॉलिसी को जमीन पर लागू करने का जीता-जागता उदाहरण है।