Trump 2.0: डोनाल्ड ट्रंप आज अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेने वाले हैं। ट्रंप अपनी आक्रामक नीतियों के बारे में पहले ही हिंट दे चुके हैं। इससे विश्व में कई बदलाव हो सकते हैं। द्रोण यादव, जो ‘अमेरिका बनाम अमेरिका’ के लेखक है और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार भी, उनकी रिपोर्ट से जानते हैं कि ट्रंप की नीतियों से विश्व में क्या बदलाव हो सकते हैं।
जिस तरह से डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने अपने शपथ ग्रहण की तैयारी की है, उससे यह तो साफ है कि वह अपने कार्यकाल को ‘लार्जर देन लाइफ’ बनाकर छोड़ेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण के इतिहास में पहली बार हो रहा है कि विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों को बतौर मेहमान आमंत्रित किया गया है। आम तौर पर यह शपथ ग्रहण एकदम शांति से किया जाता रहा है। ट्रंप ने कार्यभार संभालने से पहले ही साफ कर दिया है कि वह इस बार शासन आक्रामक रूप से चलाएंगे और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के अपने नारे को साकार करेंगे।
ट्रंप की इस शैली का असर स्वाभाविक रूप से पूरी दुनिया पर होगा। कनाडा, ग्रीनलैंड और गल्फ ऑफ मैक्सिको को अमेरिका में शामिल करने की धमकी भरी बातें ट्रंप के इरादे और साफ कर देती हैं। ट्रंप की इस आक्रामक शैली का संभावित कारण यह भी है कि उनकी पार्टी को इस वक्त न केवल दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में भी उनकी पसंद के लोग हैं। ट्रंप के किसी भी फैसले में यदि कोई चुनौती आएगी, वह या तो आम नागरिकों का विरोध होगा या अंतरराष्ट्रीय बंधन।
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अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रति वैसे भी ट्रंप का रुझान नकारात्मक ही है, चाहे वो संयुक्त राष्ट्र संघ हो, डब्ल्यूएचओ हो, नाटो हो या बेहतर पर्यावरण के लिए जलवायु समझौते ही क्यों न हो।
ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में लगातार ये वादे किए थे कि विश्व में चल रहे युद्धों को समाप्त करवा कर दम लेंगे। ऊपरी तौर पर तो यह दुनिया को शांति की ओर ले जाने वाला कदम नजर आ रहा है, लेकिन इसके पीछे इरादा युद्ध में हो रहे खर्च को बचाना है। अमेरिका के व्यापारिक प्रतिद्वंदियों पर भारी टैरिफ लगाने के उनके घोषित इरादों से दुनिया में जिज्ञासा और चिंता पैदा कर दी है। राष्ट्रपति पद संभालने से पहले ही ट्रंप द्वारा 'टैरिफ वार' किए जाते रहे हैं जो आगे चलकर और बढ़ेगे जिससे वैश्विक उथल-पुथल की आशंका है। आर्थिक वृद्धि धीमी होने से निर्यात संभावनाएं कम हो सकती है। हाँ, इसमें एक सकारात्मक पक्ष जरूर नजर आता है जिससे कमजोर अर्थव्यवस्था के देशों को लाभ हो सकता है। कच्चे तेल की कीमत 75-80 प्रति बैरल के नीचे ही रहने की संभावना से कमजोर देशों में मुद्रा स्थिति नियंत्रित रह सकती है। ट्रंप की आक्रामक टैरिफ नीति अमेरिका के लिए भी कुछ मामलों में उल्टी पड़ सकती है। खाद्य वस्तुओं में टैरिफ से मुद्रास्फीति बढ़ेगी, वहां महंगाई बढ़ सकती है।
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इमिग्रेशन भी ट्रंप के लिए प्रमुख मुद्दा है। इमिग्रेशन को लेकर अमेरिका दो धड़ों में बंट गया है। कई अमेरिकी मौजूदा आर्थिक संभावनाओं और जीवन स्तर से नाखुश हैं और रोजगार छिनने से डरे हुए हैं जबकि वास्तविक में सभी अमेरिकी भी कुछ पीढ़ी पहले के अप्रवासी ही हैं। यह असंभव नहीं तो कठिन जरूर है क्योंकि इसमें 'मैन पावर' और अरबों डॉलर्स की ज़रूरत पड़ेगी। इमिग्रेशन अदालतों में मुकदमों के अंबार लग जाएंगे। आखिरकार बाहरी व्यक्तियों को निकालने का अंतिम आदेश इमिग्रेशन अदालतें ही जारी करती हैं। डिटेंशन सेंटर्स की भी अपनी सीमाएं हैं और वह बार-बार और संसाधन बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। बाहरी व्यक्तियों को निकालने की यह अंधी मुहिम अमेरिका के लिए भारी भी पड़ सकती है क्योंकि कौशल युक्त कार्मिकों के अभाव में कम कौशल वाले लोग काम करेंगे तो गुणवत्ता पर सीधा असर पड़ेगा।
अमेरिका अपनी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति से अनेकों बार विभिन्न देशों के विवाद में संरक्षक और शांतिदूत की भूमिका निभाता है। वहीं एक मान्यता यह भी है कि अमेरिका अपनी इस ताकत का अनावश्यक उपयोग कर सदा से अपना स्वामित्व कायम करने में सफल रहा है। ट्रंप इस वक्त ऐसे बर्ताव कर रहे हैं जैसे वह अमेरिका नाम के देश के राष्ट्रपति नहीं, बल्कि अमेरिका नाम की कंपनी के सीईओ निर्वाचित हुए हैं। भू राजनीतिक (जियो पॉलिटिक्स) रूप से वर्ष 2025 विश्व के लिए एक जटिल चुनौती और संभावना दोनों ही है। इस बात की भी संभावना है कि ट्रंप नाटो से दूर हो जाएं तो जियो पॉलिटिक्स में बड़े बदलाव आएंगे और यूरोपीय देश खुद को बनाए रखने के लिए दुनिया में नए गठजोड़ करेंगे।
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