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‘जीवन में राम’ भाग 5: सत्य को केन्द्र में रखते हुए ही सारे कर्त्तव्य निश्चित करते हैं श्रीराम

सत्यनिष्ठा और उसके पालन की दृढ़ता है अयोध्या पुरी की महिमा। पढ़िए, सिद्धपीठ श्रीहनुमन्निवास के आचार्य मिथिलेश नन्दिनी शरण की आलेश श्रृंखला जीवन में राम का पांचवां भाग...

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जीवन में राम

श्रीराम रघुवंशी हैं, वे अपनी चरित्र-निष्ठा को परिभाषित करते हुए उसका श्रेय रघुकुल को देते हैं। रघुकुल के चरित्र-गुणों में एक विश्वप्रसिद्ध गुण है उनकी सत्यवादिता। इस गुण को व्यक्त करती हुई गोस्वामी तुलसीदास की एक पंक्ति जन-जन में दोहराई जाती है - रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहु पर बचन न जाई॥ रामत्व को पहचानते हुए हमें इसी सत्यनिष्ठा के दर्शन होते हैं।

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अपने सम्पूर्ण जीवन में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम सत्य को केन्द्र में रखते हुए सारे कर्त्तव्य निश्चित करते हैं। श्रीराम स्वयं अपने सत्यव्रत की घोषणा करते हुए कहते हैं- अनृतं नोक्तपूर्वं मे चिरं कृच्छेऽपि तिष्ठता। धर्मलोभपरीतेन न च वक्ष्ये कदाचन। सफलां च करिष्यामि प्रतिज्ञां जहि सम्भ्रमम्॥ सुग्रीव को आश्वस्त करते हुए श्रीराम कहते हैं कि लम्बे समय से कष्ट झेलते रहने पर भी मैंने कभी झूठ नहीं बोला है और धर्म का लोभ होने के कारण भविष्य में भी कभी नहीं बोलूंगा। तुम्हारे प्रति की गई प्रतिज्ञा मैं सफल करूंगा, तुम भय त्याग दो। सत्य की ऐसी निष्ठा और उसके पालन की दृढ़ता अयोध्या पुरी की महिमा है। अयोध्या का एक नाम सत्या इसीलिए है। वास्तव में मानव-जीवन को जिन मूल्यों से उन्नत बनाने के विचार सनातन धर्म में निहित हैं, उनमें सत्य प्रमुखतम है। गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में कहते हैं-धरमु न दूसर सत्य समाना।

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बाल्यकाल की लीलाओं से लेकर विवाह, वनवास, युद्ध और राज्याभिषेक आदि सारे प्रसंग श्रीराम की सत्यवादिता के प्रमाण हैं। विभीषण को शरण में लेने का प्रसंग उपस्थित होने पर श्रीराम कहते हैं, शत्रु और राक्षस होने के बाद भी यदि विभीषण शरण में आते हैं तो मैं उन्हें स्वीकार करूंगा। क्योंकि मेरा प्रण है कि एक बार जो मेरे सम्मुख ‘मैं आपका हूं’ ऐसा कहकर शरण मांगेगा, उसे अपनाकर भयमुक्त कर दूंगा।

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श्रीराम को वापस अयोध्या लौटाने के लिए जब महर्षि जाबालि ने नास्तिक मत का आश्रय लिया तो श्रीराम ने उनकी बातों का खण्डन करते हुए कहा कि महर्षे! सत्य ही जगत् का ईश्वर है, सत्य में ही धर्म सदैव स्थिर है। सत्य सभी का मूल है और सत्य से बढ़कर कोई परम पद नहीं है- सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्म सदाश्रित:। सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परंपदम्। यही सत्यनिष्ठा श्रीराम को धर्मविग्रह और परमेश्वर के रूप में चरितार्थ करती है।


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