28 दिसंबर 2025,

रविवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

मनुष्य अपने जीवन से भी अधिक विचित्र-देवेंद्रसागर

पाश्र्व सुशीलधाम में धर्मसभा

2 min read
Google source verification
मनुष्य अपने जीवन से भी अधिक विचित्र-देवेंद्रसागर

मनुष्य अपने जीवन से भी अधिक विचित्र-देवेंद्रसागर


बेंगलूरु. पाश्र्व सुशीलधाम में आचार्य देवेंद्रसागर ने कहा कि मनुष्य जीवन विचित्र है। मनुष्य अपने जीवन से भी अधिक विचित्र है। एक व्यक्ति अपने विवेक से जब अपने चारों ओर देखता है और जीवन की अनेक घटनाओं के बारे में एकाग्रचित्त हो चिंतन करता है तो उसे जीवन की वास्तविक परख होती है। तब उसे पता चलता है कि सामान्य और दैनिक जीवन के भीतर भी एक दूसरा जीवन है। इस जीवन में व्यति द्वंद्व से मुक्त होता है। द्वंद्व से मुक्ति कोई साधारण बात नहीं। जिसे ये उपलब्धि मिली वह फूलों की सुगंध की तरह निर्बाध फैलते हुए, आनंद फैलाते हुए सहज जीवन जीता है। उन्नत विचारों और नव-कल्पनाओं से संचित ऐसा मानवीय जीवन सामान्य जीवन का आध्यात्मिक-दार्शनिक अवलोकन होता है। वे आगे बोले एक प्राणी के जीवनकाल में जो कुछ भी घटता है, उसके बारे में विमलिन हृदय के साथ केवल स्वयं से प्रश्नोत्तर करना ही आध्यात्मिक अवस्था है। इसी स्थिति में सामान्य दुनिया और समाज के अनेक संदर्भ एकत्र कर उन्हें सर्वथा अपनी मौलिक आध्यात्मिक दृष्टि से निरंतर परीक्षित करते रहना दार्शनिक अवस्था है। जीवन के गूढ़ रहस्य जानने-समझने के लिए ऐसे आध्यात्मिक प्रबंधन हरेक मनुष्य के जीवन में होने चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। मनुष्य सोचता है कि वह भौतिक उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद ही अपना आध्यात्मिक प्रबंधन आरंभ करेगा। परंतु भौतिक उन्नति का सर्वोच्च शिखर एक मृगमरीचिका है। एक शिखर पर पहुंचे नहीं कि दूसरा दूर खश दिखाई देता है। जीवनभर मनुष्य इसी मायाजाल में उलझा रहता है। अकेले भौतिकवाद के अनुसार न तो कभी भौतिकीय उन्नति का शिखर छुआ जा सकता है और न ही इस स्थिति में आध्यात्मिक प्रबंधन जीवन की प्राथमिकता बन पाता है। इसलिए भौतिक प्रगति का मोह त्याग मनुष्य को हृदय के अंतस्तल में स्थिर हो जीवन का आध्यात्मिक पक्ष ग्रहण करना चाहिए। आध्यात्मिकता, ‘आध्यात्मिकता’ शब्द की तरह जटिल नहीं। यह एकांत में गिरनेवाली विचारों की प्रशांत मधुधारा है। मनोभावों की हरिभूमि में पल्लवित होती पुष्प-कली के समान है आध्यात्मिकता। अध्यात्म वृत्ति यदि पवित्र और प्राकृतिक है तो इसमें विचरण करनेवाले मनुष्य को अपना स्थूल शरीर भी अज्ञात लगने लगता है।
शरीर की दुख-तकलीफ, वृद्धावस्था और सांसारिक मोह-माया के जंजाल से निर्मित मानसिक उद्विग्नताएं अध्यात्मिकता के प्रभाव में धुएं की तरह विलीन हो जाती हैं। सामूहिक जीवन की सभी शिक्षा-दीक्षाओं, नकारात्मक व सकारात्मक परिभाषाओं और जीवन से संबंधित सभी गतिविधियों का कुछ क्षणों के लिए जो आत्मपरित्याग होता है, इसके बाद जिस एकात्म-एकांत में मनुष्य स्थिर होता है और इस अवस्था में जीवन-मृत्यु की सत्यता का जैसा साक्षात्कार होता है, वही आध्यात्मिकता है। भले ही आध्यात्मिकता शब्द की परिभाषाएं सरल नहीं और साधारण लोगों के लिए इसे दुर्लभ समझा जाता हो परंतु आध्यात्मिकता का भावनात्मक व्यवहार सभी के जीवन में अवश्य प्रकट होता है। यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है कि वह प्रकृति प्रदत्त मानवीय जीवन के इस आत्मिक उपहार (आध्यात्मिकता) की पहचान कर व इसे अपना कर अपना लोक-परलोक सुधारता है अथवा इसे जान-बूझ कर भुलाते हुए सांसारिक मोह-माया में उलझे रहना चाहता है।