
भोपाल। देश के ख्यात रंग निर्देशक और भारत भवन रंगमंडल के पहले निदेशक बव कारंत के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में विहान ड्रामा वक्र्स ने उनके व्यक्तिव एवं कृतित्व पर केन्द्रित थिएटर टॉक का आयोजन किया। कारंत के शिष्य और संगीतकार उमेश तरकसवार ने उनकी रचना प्रक्रिया तथा अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि बव कारंत का संगीत नाटक की ही दूसरी भाषा होता था। वह गीत हों या ध्वनि प्रभाव, सब कुछ दृश्यानुरूप तथा भाव प्रधान होता था। वह इतना सरल होता था कि कोई भी कलाकार इसे गा सके। वे कलाकारों पर इतना भरोसा करते थे कि किसी को भी नाटक की कोई भी जिम्मेदारी दे देते थे। इसी तरह कलाकार का विकास होता था। उनका नियम था कि नाटक शुरू होने के बाद वे किसी को प्रवेश नहीं देते थे। उन्होंने कई अधिकारी-नेताओं को भी शो में प्रवेश नहीं दिया। वे कहते थे कि असली दर्शक वही है जो शो देखने पैसे खर्च कर आए। ऐसे दर्शक ही कला और कलाकार को असली सम्मान देंगे।
कारंत में कभी अहंकार नहीं रहा
उमेश ने कहा कि कारंत में कभी अहंकार नहीं रहा। वे बहुत सादगी और सरलता से भरे एक अद्वितीय कलाकार थे। हिन्दी कविता का छंद समझने के लिए उन्होंने हिन्दी साहित्य का गहन अध्ययन किया। उन्होंने नाटक के संगीत में कभी की-बोर्ड को स्वीकार नहीं किया। वे सारे ध्वनि प्रभाव अपने कलाकारों से निकलवाते थे। वे सख्त अनुशासन के हिमायती थे। वे कहते थे कि यदि किसी ने नाटक के संगीत की तारीफ की तो इसका अर्थ यह कि संगीत खराब हुआ है। वे संगीत को नाटक का ही अंग मानते थे। उनका कहना था कि संगीत नाटक का अनिवार्य अंग है, लेकिन ये इतना अधिक भी नहीं होना चाहिए कि नाटक पर ही हावी हो जाए। उमेश ने नाटक 'स्कंदगुप्त' का गीत हिमाद्रि तुंग शृंग से... गाया तथा श्रोताओं को भी साथ गाने को कहा। उन्होने कारंत की कुछ और भी संगीत रचनाएं भी सुनाईं।
Published on:
20 Sept 2021 11:09 pm
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