टेलर ने देखा, कनिंघम ने संवारा
डॉ. व्यास के मुताबिक सदियों तक मलबे के ढेर में दबे इन स्तूपों को ब्रिटिश काल में 1818 में भोपाल रियासत के पॉलीटिकल एजेंट जनरल टेलर ने सबसे पहले देखा। इसके बाद सर्वेयर जनरल कनिंघम ने 1853 में स्तूपों और आसपास के अवशेषों का सर्वे किया। उन्होंने अपनी पुस्तक भेलसा टोप्स को सांची के स्तूपों पर केन्द्रित कर उसमें मुरेल खुर्द, सुनारी, सतधारा और अंधेर के स्तूपों का भी सर्वे कर उसका विवरण दिया। कनिंघम ने सांची पहाड़ी पर मलबे का उत्खनन कराया और स्तूपों को उजागर किया। उन्हें यहां स्तूप क्रमांक 3 में भगवान बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र और महामोग्दलायन तथा स्तूप क्रमांक 2 में बौद्ध शिक्षकों की अस्थियां मिलीं, जिन्हें उन्होंने इंग्लैंड पहुंचा दिया।मार्शल का योगदान अहम, इंग्लैंड से वापस आईं अस्थियां
कनिंघम के बाद स्तूपों को व्यवस्थित करने के लिए भोपाल नवाब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल सर जॉन मार्शल से अनुरोध किया। नवाब ने मार्शल को वहां रहने के लिए बंगला भी बनवाया, जो अब भी संग्रहालय परिसर में मार्शल हाउस के नाम से मौजूद है। मार्शल ने 1912-1918 तक स्तूपों को संवारने में बहुत काम किया। मार्शल ने अपनी पुस्तक मान्यूमेंट्स ऑफ सांची हिल्स के तीन वाल्यूम भी प्रकाशित किए।
उन्होंने स्तूपों का उत्खनन कराकर उनको संरक्षित कराया। मार्शल के बाद 1942 में भोपाल रियासत के पुरातत्ववेत्ता अब्दुल हमीद ने बौद्ध विहार का उत्खनन कराया और यह प्रमाणित किया कि सम्राट अशोक की पत्नी देवी यहीं रहा करती थीं। सांची की ख्याति श्रीलंका तक पहुंची और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु और महाबोधि सोसायटी श्रीलंका ने इंग्लैंड से अनुरोध किया कि सांची से वहां ले जाई गईं सारिपुत्र और महामोग्दलायन की अस्थियां वापस की जाएं, 1952 में ये अस्थियां सांची वापस आईं और भारत तथा श्रीलंका के सहयोग से बने मंदिर में इन्हें रखा गया। इन अस्थियों को हर साल पूजा और ेदर्शन के लिए नवम्बर माह में निकाला जाता है।
पहले पहाड़ी पर ही था म्यूजियम
नवाबी काल में स्तूप की पहाड़ी पर ही वहां से निकले अवशेषों का संग्रहालय बना दिया गया था, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने जगह की कमी और स्तूपों के आसपास बेहतर व्यवस्था के लिए संग्रहालय को वहां से हटाकर नीचे स्थापित कराया। 1989 में इन स्तूपों को विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। इसके बाद 1992-2000 में यूनेस्को प्रोजेक्ट के तहत सांची में बहुत काम हुआ। यूनेस्को के सांची-सतधारा प्रोजेक्ट में उत्खनन, संरक्षण के कार्य हुए, जिससे कई स्तूपों, बौद्ध विहार और बौद्ध मंदिेरों के अवशेष मिले।
अभिलेखों में विदिशा का जिक्र
डॉ. व्यास के अनुसार सांची के स्तूपों के गेट पर विदिशा के हाथी दांत क ेकारीगरों ने नक्काशी की थी, जिसका जिक्र अभिलेखों में मौजूद है। विदिशा सहित भारत के कई दानदाताओं ने भी इसमें योगदान दिया था। स्तूपों के तोरणद्वार पर जातक कथाएं उत्कीर्ण हैं। यहां हीनयान और महायान कलाओं के दर्शन होते हैं। हीनयान में प्रतीक पूजा और महायान में मूर्तिपूजा को महत्व दिया जाता था।