पढ़ें ये खास खबर- 2 साल बाद खुले भदभदा के 2 गेट, ऐसा नज़ारा कभी नहीं देखा होगा आपने, देखें वीडियो
बकरीद का महत्व
बकरा ईद पर चौपाए की कुर्बानी देना हर साहिबे हैसियत (यानी वो मुसलमान जिसपर ज़कात लाज़मी हो या उसपर किसी तरह का कर्ज ना हो) मुसलमान पर लाज़मी ( ज़रूरी ) ( conditional ) है। इसका मकसद ( उद्देश्य )अल्लाह के हुक्म ( आदेश ) को मानना है। साथ ही, इस्लाम में गरीबों का खास ध्यान रखने का भी हुक्म है। इसके तहत कुर्बानी का गोश्त उन लोगों में बांटना है, जो गरीबी के कारण गोश्त नहीं खा पाते। बकरीद के दिन को फर्ज-ए-कुर्बानी का दिन कहा जाता है। कुर्बानी के बाद गोश्त के तीन हिस्सों में बांटा जाता है। इन तीनों हिस्सों में एक हिस्सा गरीबों का होता है, दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों का होता है और तीसरा हिस्सा खुद का होता है। बांटे जाने वाले गोश्त में इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि, उन लोगों को गोश्त बांटा जाए जो कुर्बानी ना दे सके हों। यानी हैसियतमंद ना हों। ऐसा करके इस बात का पैगाम दिया जाता है कि, अपनी पसंदीदा और दिल के करीबी चीज़ को हम दूसरों की बेहतरी के लिए अल्लाह की राह में कुर्बान करने वाले बनें।
पढ़ें ये खास खबर- Acne problem Solution : 99% लोगों को नहीं पता कील-मुहांसों से निजात पाने का ये खास इलाज, चेहरा हो जाएगा कोमल और चमकदार!
क्यों मनाई जाती है ईद उल अज़हा?
इस्लाम में ईद उल अज़हा का खास महत्व है। प्रोफेट मोहम्मद से पहले एक अल्लाह का पैगाम लेकर लोगों के बीच आए वक्त के नबी ( ऋषि ) हजरत इब्राहिम अल. अपने बेटे हजरत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा की राह में कुर्बान करने जा रहे थे। तब अल्लाह ने उनके नेक जज्बे को देखते हुए उनके बेटे को जीवनदान दे दिया और उनके स्थान पर दुंबा ( अरब में पाया जाने वाला चौपाया ) कुर्बान करा दिया था। पवित्र कुरआन के मुताबिक, अल्लाह को इब्राहीम की ये कुर्बानी इतनी पसंद आई थी कि, उसने हर हैसियतमंद मुसलमान पर इसे फर्ज ( ज़रूरी ) कर दिया। तब से लेकर अब तक इस पर्व को इब्राहीम की तरफ से दी गई कुर्बानी की याद में मनाया जाता है।
पढ़ें ये खास खबर- Eyes heart connection : दिल का हाल बताती हैं आंखें, इस तरह पता लगाया जा सकता है व्यक्ति का स्वभाव
कुर्बानी देने की वजह
हजरत इब्राहिम वक्त के नबी थे, जो एक अल्लाह का पैगाम लोगों तक पहुंचाते थे। एक बार अल्लाह की तरफ से उन्हें आदेश हुआ कि, तुम अपनी सबसे पसंदीदा चीज़ को मेरी ( अल्लाह की ) राह में कुर्बान करो। इसपर उन्होंने अंदाज़ा लगाया कि, उनके लिए उनकी सबसे अज़ीज़ ( खास और पसंदीदा ) उनके बेटे हज़रत इस्माईल अल. थे, जो बुढ़ापे के वक्त उनका सहारा थे। यहां अल्लाह इब्राहीम की कुर्बानी ले रहा था और इब्राहीम भी अपने रब का आदेश मानते हुए अपनी सबसे अज़ीज़ चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए चल दिये थे। बेटे भी अल्लाह की राह में कुर्बान होने के लिए हंसी खुशी राज़ी थे। बेटे की कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े ना आ जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी, ताकि बेटे से प्रेम में अल्लाह के हुक्म से ना फिर जाए। बेटे की कुर्बानी देकर जब इब्राहीम ने आंखों से पट्टी हटाई, तो सामने देखा कि, बेटे इस्माईल सामने खड़े मुस्कुरा रहे हैं और उनकी जगह दुंबे की कुर्बानी हुई थी। पवित्र कुरआन के मुताबिक, आवाज़ आई कि, ‘हम तुम्हारा बेटा नहीं मज़बूत यकीन देखना चाहते थे। तुम्हारी ये कुर्बानी कबूल हुई और अब से लेकर इस दुनिया के अंतिम दिन तक हम पर ( अल्लाह पर ) यकीन रखने वाले शख्स को आज ही के दिन तुम्हारी कुर्बानी की याद में किसी जानवर पर कुर्बानी देना होगी। तब से लेकर आज तक लगभग पांच हज़ार सालों से हज़रत इब्राहीम अल. की याद में इस कुर्बानी के दिन को मनाया जाता आ रहा है।