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एक किस्सा: संघ का एक ऐसा नेता जिसके दरबार में हाजिरी लगाते थे मोहम्मद अली जिन्ना के वंशज

एक किस्सा: संघ का एक ऐसा नेता जिसके दरबार में हाजिरी लगाते थे मोहम्मद अली जिन्ना के वंशज

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भोपाल. महीना अप्रैल 1974। संपूर्ण क्रांति आंदोलन देश में आग की तरह फैल चुका था। पटना के गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण पर लाठियां बरसाईं जा रही थी। तब एक संघ प्रचारक उनके ऊपर लेट गया था। बदले में उस संघ प्रचारक का हाथ टूट गया था। लेकिन तर्क दिया था जेपी घायल नहीं होने चाहिए। संघ का यही विचारक जनसंघ का कार्यकर्ता बनकर यूपी पहुंचा था। पटना की घटना के बीच मैंने यूपी का जिक्र किया है। इस पर गौर जरूर करिएगा। यूपी पहुंचे इस संघ प्रचारक के लिए खाने को पैसे नहीं थे। रात धर्मशाला में बिताई। मदद के लिए राघवदास सामने आए और शर्त रखी बावर्ची बनने की। जनसंघ को मजबूत करने के लिए इस विचारक ने बावर्ची बनना भी स्वीकार कर लिया। मरणोपरांत 2019 में इस संघ विचारक को देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यही कहानी है चंडिका दास अमृत राव देशमुख की यानि नानाजी देशमुख की।


मंत्री पद ठुकराया
आपातकाल के बाद 1977 में देश में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बने। मोरारजी अपने मंत्रालय में इस संघ विचारक को शामिल करना चाहते थे। चंडिका दास अमृत राव देशमुख को मंत्रिमंडल में शामिल होने का न्यौता दिया गया। पर जबाव मिला नहीं। चौंकिए मत ये सच्चाई है। उन्होंने ये कहकर मंत्री पद ठुकरा दिया की उनकी उम्र 60 साल से ज्यादा है और 60 साल को लोगों को सरकार में रहकर नहीं बल्कि सरकार से अलग रहकर समाज की सेवा करनी चाहिए। यह बात उस देश के लिए अचंभित करने वाली हो सकती है जहां 80 साल की उम्र मे भी नेता मंत्रालय पाने की कोशिश करते हैं। जहां कुर्सी के लिए विधायकों और सांसदों की खरीद फरोख्त होती हो और मंत्री बनने की लालसा में पार्टियां बदल दी जाती हैं। खैर ये तब की बात थी अब तो सत्ता ही सर्वोपरि है। यहां हम बात कर रहे हैं संघ के विचारक और यूपी जैसे राज्य में जनसंघ को खड़ा करने वाले एक संन्यासी नेता नानाजी देशमुख की। ये वही नानाजी हैं जिन्होंने भगवान राम की तपोभूमि को अपनी कर्मभूमि बनाई और यहीं से वो चंडिका दास अमृत राव देशमुख से नानाजी के नाम से प्रसिद्ध हो गए। भगवान राम की तपोभूमि वाली लाइन को आप याद रखिएगा...इसके बिना नानाजी की कहानी अधूरी है।

महासचिव का प्रभार
अभी थोड़ी देर पहले हमने उत्तरप्रदेश का जिक्र किया था। तो आइए पहले नानाजी को जानने के लिए यूपी चलते हैं। 11 जुलाई, 1949 को जब पहली बार आरएसएस से प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला किया गया। नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का प्रभार दिया गया। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। 1959 तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयां खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके बाद भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी। उत्तरप्रदेश की बड़ी राजनीतिक हस्ती और पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। 1957 में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलाई और चन्द्रभानु गुप्त की हार हुई। कहा जाता है कि चंद्दभानु गुप्त ही वो नेता थे जिनसे नानाजी देशमुख से कड़ी चुनौती मिली थी। उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भले की नानाजी के कट्टर राजनीतिक विरोधी थे पर वो नानाजी के बड़े समर्थक थे। हमेशा नानाजी का सम्मान करते थे। उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। समाजवाद के पुरोधा डॉ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा ही बदल दी।


नानाजी चलते रहेंगे
बेबाकी से अपनी बात कहने वाले जनसंघ और भाजपा के पितृ पुरूष माने जाने वाले नानाजी ने अपनी ही पार्टी पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि भाजपा चले ना चले नानाजी चलते रहेंगे। ये उन नानाजी के कथन थे जो 1980 राजनीति को अलविदा कहकर समाज सेवा में जुट गए थे। अभी थोड़ी देर पहले हमने भगवान राम की तपोभूमि का जिक्र किया था। ये तपोभूमि है चित्रकूट जिसे नानाजी देशमुख ने अपनी कर्मभूमि बनाया था। भगवान राम को अपना आराध्य मानने वाले नानाजी राजनीति से संन्यास लेने के बाद चित्रकूट गए तो हमेशा के लिए वहीं रह गए। यही रहकर उन्हें राष्ट्र ऋषि की उपाधि भी मिली। यहीं पर नानाजी ने 1996 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस सपने को सकार करने की नींव रख दी जो आज दुनिया के लिए मिशाल है। उन्होंने ग्रामोदय से राष्ट्रोदय की कल्पना को साकार करने की पहल की और इसके लिए शिक्षित युवा-युवतियों से उनके जीवन का पांच साल देने का आह्वान किया। नानाजी की मेहनत रंग लाई। कई प्रदेशों से हर साल युवा दम्पत्ति चित्रकूट पहुंचने लगे। इन युवाओं को नानाजी 15-20 दिन का प्रशिक्षण देते थे और उनसे कहते- "राजा की बेटी सीता उस समय की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में 11 वर्ष तक रह सकती है, तो आज इतने प्रकार के संसाधनों के सहारे तुम पांच वर्ष क्यों नहीं रह सकते। ये शब्द सुनकर नवदाम्पत्य में बंधी युवतियों में सेवा भाव और गहरा होता गया। वो लोग पहाड़ों के बीच बसे गांवों की विकास की तरफ दौड़ने लगे। नानाजी का ग्रामोदय से राष्ट्रोदय आंदोलन अब उनका नहीं वरन मानव समाज का आंदोलन बन गया था। जिसके बाद नानाजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति में स्थापित दीनदयाल शोध संस्थान (डीआरआई) के तहत संचालित विभिन्न कई प्रकल्पों की स्थापना की। नानाजी ने चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके अलावा खेतीबाड़ी, कुटीर उद्योग, ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का उन्होंने विशेष ध्यान रखा।

संतों के विरोध का करना पड़ा था सामना
हालांकि नानाजी की ये राह आसान नहीं थी। नानाजी को भी चित्रकूट में उन्हें उन्हीं साधु-संतों का विरोध झेलना पड़ा था जिस साधु-संत को लेकर भाजपा आज हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। नानाजी देशमुख के करीबी पत्रकार रहे परवेज अहमद ने कई जगहों पर लिखा है कि गांवों का विकास नानाजी देशमुख के जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य था। साधु संतों ने नानाजी देशमुख के ग्रामोदय विश्वविद्यालय का विरोध किया था। साधुओं का कहना था कि चित्रकूट रामकी तपोस्थली है और यहां पढ़ने आने वाले छात्रों के कारण यहां कि गरिमा धूमिल हो सकती है। पर नानाजी नहीं रूके विरोध के बाद भी लगातार गांवों के विकास के लिए काम करते रहे। संत समाज के विरोध के बाद भी देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना चित्रकूट में की और नानाजी इस विश्वविद्यालय के पहले कुलाधिपति बने।

जिन्ना के वंशज भी लगाते थे हाजिरी
नानाजी भाजपा, जनसंघ के ऐसे अकेले नेता था जिनके दरबार में विरोधी भी हाजिरी लगाते थे। जिन मोहम्मद अली जिन्ना के कारण देश का विभाजन हुआ और जिसकी मजार पर फूल चढ़ाने से भारतीय राजनीति में हंगामा हो गया था। उन्हीं मोहम्मद अल्ली जिन्ना के वंशज नानाजी देशमुख के दरबार में हाजिरी लगाते थे और मानव एकात्मवाद की शिक्षा लेते थे। अक्सर जिन्ना के वंशज यहां पहुंचते थे। अब बात चली है मोहम्मद अली जिन्ना की तो ये भी जान लीजिए जिन्ना ने भारत से पाकिस्तान तो ले लिया पर बेटी को अपने साथ नहीं ले जा सके। दीना वाडिया मुहम्मद अली जिन्ना की एकमात्र सन्तान थीं। विभाजन के बाद दीना ने भारत का नागरिक बनना स्‍वीकार किया। पिता को मिले देश पाकिस्तान का नहीं और जिन्ना की बेटी के वंशज नानाजी के दरबार में हाजिरी लगाते थे। यही नहीं टाटा, बिड़ला जैसे ओद्योगिक घराने भी नानाजी के दरबार में हाजिरी लगाते थे और नानाजी के ग्राम विकास की कल्पना पर चर्चा करते थे।

गांवों तो किया मुकदमा फ्री
जिस देश में कोर्ट-कचहरी आम बात हो गई हो और हर बात में लोग कोर्ट का दरवाजा खड़खड़ता हो। उस देश में कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि लोग एक दूसरे के खिलाफ केस ना करें। पर नानाजी ने इस कल्पना को भी मूर्त रूप दिया। नानाजी देशमुख जब चित्रकूट पहुंचे तो वहां के कई गांवों आपसी झगडो़ं से जूझ रहे थे। ऐसे में नानाजी देशमुख ने गांवों के झगड़ों को निपटाने का बीड़ा उठाया। नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में रहते हुए करीब पांच सौ गांवों को मुकदमा मुक्त किया था। मुकदमा मुक्त का मतलब था कि इन पांच सौ गांवों में आज भी कोई एक दूसरे के खिलाफ मुकदमा नहीं करता है। और आपसी झगड़ों से कोसो दूर है। भाजपा पर अक्सर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगता है। लेकिन इस भाजपा के पितृ पुरूष कहे जाने वाले नानाजी देशमुख ने जिस पांच सौ गांवों को मुकदमा मुक्त किया था उनमें से दस गांव मुस्लिम बाहुल्य थे। चित्रकूट पहुंचने तक नानाजी देशमुख को चंडिका दास अमृत राव देशमुख के नाम से जाना जाता था। लेकिन सफेद दाढ़ी और गांवों में निरंतर भ्रमण गावों में लोगों के बीच रहना और महिलाओं के अधिकार की बात करने के विचार ने इन्हें चंडिका दास अमृत राव देशमुख से नानाजी देशमुख बना दिया और वो अपने वास्तविक नाम से ज्यादा इस नाम से प्रसिद्ध हो गए।

27 फरवरी 2011 को निधन
नानाजी देशमुख ने 27 फरवरी 2011 को चित्रकूट स्थित अपने आवास सियाराम कुटीर में अंतिम सांस ली थी। उस वक्त वे 95 वर्ष के थे। नानाजी ने अपनी वसीयत में अपनी देह मेडिकल के शोध कार्य के लिए दान कर दी थी। इसकी घोषणा भी उन्होंने 1997 में ही कर दी थी। नानाजी का पार्थिव शरीर आज भी नई दिल्ली स्थित एम्स में सुरक्षित रखा हुआ है। मौजूदा राजनीति के गिरते हुए स्तर पर कटाक्ष करते हुए नानाजी ने कहा था आज की राजनीति मुझे रास नहीं आती है। आज की राजनीति का मकसद सिर्फ सत्ता पाना है..और मुझे इस राजनीति से घृणा हो रही है। राजनीति में जो गिरावट है वो समाज के लिए अच्छी नहीं है। अच्छी राजनीति की आस लेकर वह हमेशा के लिए विदा हो गए। देश में उन्हें अबकी बार भारत रत्न से अलंकृत किया है। नाना हमेशा इस सम्मान के साथ अलंकृत होते रहेंगे, उनकी बातें हमें याद आती रहेंगी।