
इस्लाम में रमज़ान के रोज़ों की अहमियत, जानिए इसके पीछे की सच्चाई
भोपालः इस्लाम में रमज़ान के रोज़ों का खास मुक़ाम है। इसे अल्लाह ने हर तंदुरुस्त मर्द और औरत पर फर्ज (लागू) किए हैं। हदीस (प्राफेट मोहम्मद सल्ललाहो अलयहे वस्ल्लम द्वारा कही गई बात) का मफूम (मायने) हैं सहाबा (प्रॉफेट मोहम्मद सा.की बातों को सुनकर उनके बताए रास्ते पर चलने वाले लोग) को प्रॉफेट मोहम्मद सा. ने बताया कि, रमज़ान के दिनों में की गई अल्लाह की इबादत का बदला अल्लाह एक के बदले सत्तर गुना देता है, यानि अगर तुम एक नेकी करोगे तो तुम्हें सत्तर नेकियां करने का सवाब मिलेगा। साथ ही, अगर एक बार अल्लाह की इबादत करोगे तो, सत्तर बार अल्लाह की इबादत करने का सवाब मिलेगा। कुल मिलाकर बात यह है कि, अल्लाह अपने बंदों पर रमज़ान के दिनों में थोड़े से अच्छे कम कर लेने पर भी बड़ा सवाब देने का वादा कर रहा है, लेकिन उसकी शर्त है कि, लोगों को अच्छे काम और उसकी इबादत करने पर यह सवाब दिया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि, अल्लाह चाहता है कि, उसका बंदा इस तरह जिंदगी गुज़ारना सीख जाए, जिसके बाद रमजा़न के बाद की जिंदगी में भी वह सही रास्ते पर चले।
रमज़ान की 27वीं शब को पूरा हुआ था क़ुरआन
इस्लाम के मुताबिक, रमज़ान महीने की 27वीं रात शब-ए-क़द्र को क़ुरआन (अल्लाह की तरफ से भेजे गए शब्द) नाज़िल (ज़मीन पर पूरी तौर पर आया था)। वैसे क़ुरआन में लिखी पूरी बातों को प्रॉफेट मोहम्मद सा. के ज़रिए दुनिया के लोगों तक आने में तैईस साल का वक़्त लगा था, लेकिन क़ुरआन के पूरे शब्द रमज़ान की 27वीं शब (रात) में मुकम्मल (पूरे) हुए थे। यानि क़ुरआन तैईस साल बाद रमज़ान की 27वीं रात को पूरा हुआ था, इसलिए मुसलमान रमज़ान की इस रात खास एहतमाम (सम्मान) करते है। इस पूरे महीने में लग क़ुरआन पढ़ते हैं, ग़रीबों की मदद के लिए उन्हें पैसे, कपड़े या उनकी ज़रूरत की चीज़ सदक़ा(दान) करते हैं।
रमज़ान का रोज़ा हर तंदुरुस्त मुसलमान पर फर्ज़ है
रमजान को नेकियों का मौसम भी कहा जाता है। इसलिए भी इस्लाम को मानने वाले अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक रमज़ान के पाक (पवित्र) महीने में गरीबों और जरूरतमंदों को ज़कात, सदक़ा, फित्रा, खैरात, गरीबों की मदद, दोस्त अहबाब में जो ज़रुरतमंद हैं उनकी मदद करना ज़रूरी मानते हैं। वैसे तो एक दिन में पाच बार नमाज़ पढ़ना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फर्ज है, लेकिन इन नमाज़ों के अलावा रमज़ान की रातों में एक ख़ास नमाज़ पढञी जाती है, जिसे तारावीह कहा जाता है।
क्या होता है रोज़ा?
रमज़ान के दिनों में मज़हब-ए-इस्लाम के मानने वाले रोज़ाना एक चांद के दिखने से दूसरे चांद के दिखने तक करीब उनतीस से तीस दिन रोज़े रखते हैं। इस्लाम के मुताबिक, इन रोजों को फर्ज कहां गया है, जिसके जरिए इंसान को यह मौका दिया गया कि, वो अपने बनाने वाले के सामने अपने बंदगी (कृतज्ञता) ज़ाहिर कर सके। रोज़े के दौरान सूरज निकलने का वक़्त होने से पहले और सूरज डूबने का वक़्त ख़त्म होने के बाद तक इंसान भूखा-प्यासा रहता है, लेकिन रोज़े का मक़सद सिर्फ भूखे प्यासे रहना नहीं, बल्कि यह रोज़ा उसके पूरे शरीर का होता है, यानि वह शरीर के किसी भी आज़ा (अंग) से कोई बुरा काम ना करे और हर रोज़दार को अपने रोज़े की हिफाज़त (सेफ्टी) करना भी ज़रूरी है। अगर इंसान रोज़ा रखकर भी बुरे काम करता है, तो उसका रोज़ा मकरूह (खंडित) हो जाता है, यानि उसे इस जानबूझकर की गई ग़लती का जवाब मरने के बाद अल्लाह को देना होगा। रोज़े खुद पर काबू रखना सिखाते हैं। रोज़े भूखे प्यासे लोगों के लिए अहसास कराना सिखाते हैं, कुल मिलाकर यूं कहें कि, रोज़े इंसान बनना सिखाते हैं।
Published on:
03 Jun 2018 04:15 pm
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