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दशानन @ 10: मैं रावण…  कुलधर्मी, सच्चा क्षमाधर्मी!

जब राजा इंद्र से युद्ध के दौरान दोनों ओर के सैनिक बड़ी संख्या में आहत होने लगे तो मैनें स्वयं अकेले ही इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा।

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Manish Geete

Oct 06, 2016


मैं रावण... मेरी दिग्विजय का लक्ष्य था अपनी वंश परंपरा की राज्य नगरी लंका को पुन: प्राप्त करना। दिग्विजय मात्र शक्ति बढ़ाकर राजा इंद्र पर विजय प्राप्त करने के लिए थी ना कि धनवृद्धि के लिए। आपको तो पहले भी बताया मैनें कि राजा इंद्र ने ही लंका पर अधिपत्य स्थापित कर मेरे दादा सुमाली के भाई माली को मारा था और उन्हें लंका से बाहर कर दिया था।

चूंकि विजयार्थ पर्वत का यह राजा स्वयं को साक्षात् सौधर्म इंद्र, अपनी नगरी को स्वर्ग समझता था और अपने अधिनस्थ राजाओं को देव मानता था इसलिए इसकी सेना देव सेना कहलाई और तो और इसने अपने हाथी का नाम भी ऐरावत रख लिया था इसलिए इसकी सेना देव सेना कहलाई और मैं राक्षस वंश का था तो मेरी सेना राक्षस सेना। इसलिए जब मैनें इस पर विजय प्राप्त की तो लोकव्यवहार में कहा गया कि मैनें स्वर्ग के इंद्र को जीत लिया जो गलत था।




खैर यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं। जब राजा इंद्र से युद्ध के दौरान दोनों ओर के सैनिक बड़ी संख्या में आहत होने लगे तो मैनें स्वयं अकेले ही इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। वैसे भी मैनें दिग्विजय के दौरान इस बात पर विशेष ध्यान दिया था कि मैं विपरीत राज्य के राजा को ऐसे बंदी बना लूँ कि कम से कम सैनिकों को युद्ध में प्राम गंवाना पड़ें। सौ यहाँ भी ऐसा ही सोचा। हम दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ और अंत में वह समय आ ही गया जब मैनें इंद्र को बंदी बना लिया और अपनी लंका को वापस प्राप्त कर लिया। अठारह साल तक दिग्विजय के सफर के बाद हमें यह दिन देखने को मिला जब मेरी वंश परंपरा की नगरी और राज्य मेरा था।




राजा इन्द्र के पिता सहस्त्रार मेरे पास आए उनको मैनें विनय पूर्वक सम्मान दिया। जब उन्होंने इन्द्र को बंधन मुक्त करने को कहा तो मैनें उनसे कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, आप मेरे पिता तुल्य हैं इसलिए इंद्र मेरा चौथा भाई है। वह जितना चाहे राज्य ले और वहाँ राज्य करे मुझसे इससे कोई तकलीफ नहीं, मुझे तो बस मेरे वंश की राज्यस्थली लंका नगरी वापस मिल गई और मुझे कुछ नहीं चाहिए। वैसे भी मैं दिग्विजय के बाद प्रत्येक राजा को उनके राज्य में ही शासन करने को देता आया हूँ। आपको पता है उस समय मेरे एक शत्रु का पिता मेरी प्रशंसा कर रहा था, और मैं अपने शत्रु को क्षमा कर रहा था। मैनें इंद्र को छोड़ दिया और लंका विजय पर उत्सव हुआ। मेरे दादा सुमाली ने उस उत्सव के दौरान बताया था कि एक मुनिराज ने कहा था कि रावण ही तुम्हें लंका वापस दिलवाएगा... और हुआ भी वही। इसका मतलब यह मेरा कत्र्तव्य कर्म था इसलिए मैनें दिग्विजय हासिल की। यही मेरी धर्म कुलधर्म भी था ।


आपसे एक प्रश्न करूँ... आपमें से कौन है जो अपने शत्रु के पिता को सम्मान दे और यही नहीं शत्रु को क्षमा कर उसे राज्य संपदा भी देदे। अरे आप तो शत्रुता इस प्रकार निभाते हो कि अपने दुश्मन के घर-परिवार , नाते-रिश्तेदार और संतानों से भी शत्रुता का भाव जीते हो... बोलो, मैं था ना कुलधर्मी और क्षमाधर्मी! मेरा पुतला जलाकर क्यों अपने कर्मों की गति खराब कर रहे हो मैं समझ ही नहीं पाता कि यह देखने के बाद कि मेरे एक अवगुण ने मेरे हजार सद्गुणों का तेज धूमिल कर दिया, फिर भी तुम कोई शिक्षा ग्रहण नहीं कर रहे...मैं सही में तुम्हारे लिए अत्यंत दु:खी होता हूँ।

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