राजा इन्द्र के पिता सहस्त्रार मेरे पास आए उनको मैनें विनय पूर्वक सम्मान दिया। जब उन्होंने इन्द्र को बंधन मुक्त करने को कहा तो मैनें उनसे कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, आप मेरे पिता तुल्य हैं इसलिए इंद्र मेरा चौथा भाई है। वह जितना चाहे राज्य ले और वहाँ राज्य करे मुझसे इससे कोई तकलीफ नहीं, मुझे तो बस मेरे वंश की राज्यस्थली लंका नगरी वापस मिल गई और मुझे कुछ नहीं चाहिए। वैसे भी मैं दिग्विजय के बाद प्रत्येक राजा को उनके राज्य में ही शासन करने को देता आया हूँ। आपको पता है उस समय मेरे एक शत्रु का पिता मेरी प्रशंसा कर रहा था, और मैं अपने शत्रु को क्षमा कर रहा था। मैनें इंद्र को छोड़ दिया और लंका विजय पर उत्सव हुआ। मेरे दादा सुमाली ने उस उत्सव के दौरान बताया था कि एक मुनिराज ने कहा था कि रावण ही तुम्हें लंका वापस दिलवाएगा... और हुआ भी वही। इसका मतलब यह मेरा कत्र्तव्य कर्म था इसलिए मैनें दिग्विजय हासिल की। यही मेरी धर्म कुलधर्म भी था ।