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शतरंज में व्यस्त दोनों जागीरदार रहते हैं, अवध नवाब को कैद कर लेते हैं अंग्रेज

- देश, घर-परिवार की चिंता छोड़ राजाओं का विलासी जीवन

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भोपाल

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Vikas Verma

May 11, 2018

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Shaheed bhavan

भोपाल। स्वराज संचालनालय की देशराग शृंखला के तहत गुरुवार को शहीद भवन में नाटक 'शतरंज के खिलाड़ीÓ का मंचन किया गया। उपन्यासकार प्रेमचंद्र द्वारा लिखित इस नाटक को रंग माध्यम नाट्य संस्था ने प्रस्तुत किया। एक घंटे तीन मिनट के नाटक का निर्देशन दिनेश नायर ने किया। शतरंज के खिलाड़ी मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी है। इसकी रचना उन्होने अक्टूबर 1924 में की थी और यह 'माधुरी' पत्रिका में छपी थी। यह कहानी 1847 से 1856 के समय की है। वर्ष 1977 में सत्यजीत राय ने इसी नाम से इस कहानी पर आधारित एक हिन्दी फिल्म बनाई थी।

नाटक में दिखाया गया कि लखनऊ शहर में राजनीतिक सामाजिक चेतना शून्य हो गई है। यहां के राजा और नवाब भोग विलास में डूबे हुए हैं। मिर्जा सÓजाद अली और मीर रौशन अली दोनों वाजिद अली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए उन्हें कोई परवाह नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं और शतरंज खेलना उनका मुख्य काम है। दोनों को समय पर नाश्ता, खाना, पान और तंबाकू उपलब्ध होता है।

शतरंज का नशा ऐसा कि बीवी की तबियत तक भूल गए
एक दिन मिर्जा सÓजाद अली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह तब भी शतरंज के खेल में लिप्त होते है और अपनी बीवी का इलाज नहीं कराते हैं। तंग आकर उनकी बीवी शतरंज को बाहर फेंक देती हैं। इसके बाद शतरंज का खेल मीर रौशन अली के घर में होने लगता है। रोज-रोज के इस खेल से उनकी बीवी भी परेशान हो जाती है।

एक दिन दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी समय बादशाही फौज का एक अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गए। शाही अफसर मीर साहब के नौकरों पर खूब रौब झाड़ता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। दोनों मित्र चिन्तित होते हैं कि आखिर इसका क्या समाधान निकाला जाए।

नवाब नहीं शतरंज के लिए लगाई जान की बाजी
इसके बाद दोनों मित्र शतरंज के खेल को खेलने के लिए गोमती के किनारे पर एक वीरान मस्जिद में चले जाते हैं। अपने साथ वह जरूरी सामान हुक्का, चिलम और दरी भी ले जाते हैं। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेजी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है।

उन्होंने मिर्जा को हड़बड़ी में यह बात बताई। कुछ समय में ही नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेजी सेना विजयी-भाव से लौट रही थी। अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। सÓजाद और रौशन दोनों इस नवाब के जागीरदार थे।

वैसे तो नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगाई लेकिन शतरंज की बाजी पर। थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रईसी तक आ पहुंची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत के साथ ही नाटक का भी अंत हो गया।