
पहली बार जरीना वहाब के साथ धर्मेंद्र होंगे पर्दे पर
-दिनेश ठाकुर
रणधीर कपूर और बबीता की फिल्म 'कल आज और कल' (1971) का गाना है- 'हम जब होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की/ बोलो प्रीत निभाओगी न तब भी अपने बचपन की।' इसमें साठ और पचपन साल की उम्र में प्रीत निभाने की बात हो रही है, लेकिन क्या 80 साल पार कोई कलाकार फिल्म में रूमानी रंग बिखेर सकता है? बीते दौर के ही-मैन धर्मेंद्र यह कारनामा करने वाले हैं। लेखक-निर्देशक सचिन गुप्ता चार शॉर्ट फिल्मों की एक सीरीज बना रहे हैं। इसकी 'फूलचंद की फूलकुमारी' नाम की एक कड़ी में धर्मेंद्र बरसों बाद रोमांटिक किरदार में नजर आएंगे। इसमें उनकी नायिका हैं 61 साल की जरीना वहाब। यह जोड़ी पहली बार पर्दे पर साथ होगी।
फिल्मों में पांच दशक लम्बे अपने सुहाने दौर में धर्मेंद्र भले एक्शन और मारधाड़ के लिए ज्यादा मशहूर रहे हों, रोमांस तथा कॉमेडी पर भी उनकी जबरदस्त पकड़ रही। वह हरफनमौला अभिनेता हैं। 'शोले' (1975) का बातूनी नौजवान हो या 'अनुपमा' (1966) का धीर-गंभीर लेखक-अध्यापक या फिर 'प्रतिज्ञा' (1975) का ट्रक ड्राइवर, जो मजबूरन एक गांव की पुलिस चौकी का इंचार्ज बन जाता है, ऐसे कई किरदार उनके अभिनय की व्यापक रेंज का पता देते हैं। पर्दे पर इस व्यापकता को खाद-पानी धर्मेंद्र के उस व्यक्तित्व से मिलते हैं, जिसमें सादगी और भोलेपन के साथ खास किस्म का देसीपन है।
स्कूल के दिनों में उन्होंने प्रेमचंद की सारी कहानियां और उपन्यास पढ़ डाले थे। कृष्ण चंदर और राजिंदर सिंह बेदी भी उनके पसंदीदा लेखक रहे हैं। शायद इस अध्ययन ने उन्हें हमेशा जमीन से जोड़े रखा। चूंकि स्कूल में उनका माध्यम उर्दू था, इसलिए हिन्दी के मुकाबले उर्दू पर उनकी पकड़ ज्यादा है। उनके व्यक्तित्व की एक खास बात यह भी है कि उनका दिल ज्यादा तेज चलता है, दिमाग लस्सी-वस्सी पीकर आराम से सक्रिय होता है।
साठ से नब्बे के दशक तक, जब फिल्मों में धर्मेंद्र का नाम खरे सिक्के की तरह चलता था, उन्होंने दिमाग की कम, दिल की ज्यादा सुनी। जिस भी फिल्म का प्रस्ताव मिला, आंख मूंदकर कबूल कर लिया। इसलिए एक दौर ऐसा भी रहा, जब हर दूसरे हफ्ते उनकी कोई न कोई फिल्म सिनेमाघरों में पहुंच रही थी। जाहिर है, इनमें घाटे का सौदा साबित होने वाली ऐसी फिल्में ज्यादा थीं, आज जिनके नाम तक उनके प्रशंसकों को याद नहीं होंगे। मसलन 'दो शेर' (1974),'गंगा तेरे देश में' (1988), 'विरोधी' (1992), 'अग्नि मोर्चा' (1993), 'वीर' (1995), 'लौहपुरुष' (1999) वगैरह। तब धर्मेंद्र का सिद्धांत यह था कि अगर सिक्का चल रहा है तो धड़ाधड़ फिल्में साइन करने में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि कोई नहीं जानता कि कौन-सी फिल्म हिट होगी।
अगर कलाकार के पास बीस-तीस फिल्में हों और उनमें से तीन-चार भी चल गईं तो कॅरियर सुरक्षित रहेगा। एक हिट फिल्म कई फ्लॉप फिल्मों के दाग धो देती है। धर्मेंद्र ने 'सुरक्षित कॅरियर' का यह मंत्र अस्सी के दशक में उभरे गोविंदा को भी दिया। गोविंदा मानते हैं कि उनकी कामयाबी के पीछे धर्मेंद्र के मार्गदर्शन का भी हाथ रहा है। हैरानी की बात है कि जिस मंत्र ने गोविंदा को धन्य किया, वह धर्मेंद्र के छोटे पुत्र बॉबी देओल के कॅरियर के लिए कारगर नहीं रहा। शायद दवाइयों की तरह मंत्र भी अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग तरह से असर करते हैं।
Published on:
28 Feb 2020 07:38 pm
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